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साधक का मन ज्यों-ज्यों निर्मल होता है, उसमें वैराग्य भाव बढ़ता जाता है, उसकी आध्यात्मिक उन्नति होती है, उसकी आत्म-चेतना की धारा उन्नति के सोपानों पर चढ़ती जाती है।
इस प्रकार द्वादश अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन-मनन से साधक को अपरिमित लाभ होता है। यही कारण है कि गृहस्थ और गृहत्यागी-दोनों प्रकार के साधक अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करके आत्मिक उन्नति के प्रति सजग रहते हैं।
द्वादश अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन-मनन-अनुशीलन-अनुचिन्तन से साधक के हृदय में निवृत्ति-निर्वेद और परम शान्ति का संचार होने लगता है, एवं उसका वैराग्य दृढ़ से दृढ़तर हो जाता है, इसीलिए इन बारह अनुप्रेक्षाओं को वैराग्य भावना कहा गया है।
योग भावनाएँ __इनके अतिरिक्त आगमों में चार भावनाओं का और उल्लेख प्राप्त होता है। वे हैं___. (1) मैत्री भावना', (2) प्रमोद भावना', (3) कारुण्य भावना' और (4) माध्यस्थ भावना।
आगमों के उपरान्त इनका सर्वप्रथम उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वाति ने किया हैमैत्री प्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि सत्वगुणाधिक क्लिश्यमानाऽविनयेषु।
-तत्वार्थ सूत्र 7/6 अर्थात्-प्राणीमात्र पर मैत्रीभाव, गुणाधिकों पर प्रमोदभाव, दुःखितों पर
1. (क) मित्ती मे सव्वभूएसु ।
-आवश्यक सूत्र 4 (ख) मेत्तिं भूएसु कप्पए। -
-उत्तरा. 6/2 (ग) न विरुज्झेज्ज केणइ ।
-सूत्रकृतांग 1/15/13 2 सुस्मूसमाणो उवासेज्जा सुप्पन्नं सुतवस्सियं ।
-सूत्रकृतांग 1/9/33 3. सव्वेसिं जीवियं पियं नाइवाएज्ज कंचणं ।
-आचारांग 1/2/3 4. (क) उवेह एणं बहिया य लोगों से सव्व लोगम्मि जे केइ विण्णू ।
-आचारांग 1/4/3 (ख) अणुक्कसे अप्पलीणे मझेण मुणि जावए। -सूत्रकृतांग 1/1/4/2
* भावनायोग साधना * 225*