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योग साधना के लिए वैराग्य सर्वप्रथम और आवश्यक तत्त्व है। बिना वैराग्य के अध्यात्मयोग में साधक गति ही नहीं कर सकता। उसकी सम्पूर्ण गति-प्रगति वैराग्य की दृढ़ता और प्रकर्षता पर ही निर्भर होती है ।
वैराग्यहीन योग तो बिना प्राण का शरीर - शव मात्र ही होता है। उस योगविद्या के माध्यम से साधक चमत्कारी सिद्धियाँ भले ही प्राप्त कर ले; किन्तु मोक्षमार्ग की ओर उसकी गति हो ही नहीं सकती । सही शब्दों में ऐसा साधक अपनी आत्मा को पतन की ओर ही ले जाता है।
अध्यात्मयोग के साधक के लिए वैराग्य अति आवश्यक और आधारभूत है । इसीलिए भावनायोग के नाम से अध्यात्मयोग साधना का एक अंग भी निर्धारित किया है, जिसमें द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करके साधक अपने वैराग्य को और भी सुदृढ़ करता है।
अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन से लाभ
अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन से वैराग्य भाव के दृढ़ होने के अतिरिक्त साधक को और भी कई लाभ होते हैं। उनमें से कुछ प्रमुख ये हैं
(1) यथार्थता की अनुभूति- इन द्वादश अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन से साधक को यथार्थता की स्पष्ट अनुभूति होती है। वह शरीर के - लोक के. यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। अशरण भावना से उसे विश्वास हो जाता है कि धर्म के अतिरिक्त संसार में कोई भी शरण नहीं है।
(2) मूर्च्छा और मलों की सफाई का अवसर - अनादिकालीन मिथ्या - संस्कारों और कर्म-मलों के लगे रहने से आत्मा का ज्ञान - दर्शन - चारित्र संसाराभिमुखी और मलिन होता है। उस मल और मिथ्या संस्कारों को परिमार्जन करने का अवसर साधक को इन अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन द्वारा प्राप्त होता है। संसार-सम्बन्धी उसकी मोह - मूर्च्छा का नाश होता है। अशुचि भावना से उसका देहाध्यास छूट जाता है, संसार भावना से उसे संसार दुःखमय दिखाई देने लगता है। इसी प्रकार अन्य भावनाओं के चिन्तन से उसकी मूर्च्छा का नाश होता है।
(3) मन की निर्मलता - मिथ्या - संस्कार, मोह-मूर्च्छा का नाश होने का परिणाम यह होता है कि साधक के मन में जो कलुषता थी उसका भी नाश हो जाता है, मन में उठने वाले आवेग संवेगों के भाव और संकल्प-विकल्प उपशान्त हो जाते हैं। इसका परिणाम मन की निर्मलता होता है।
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