SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पर विचार करता है। वह सोचता है - मेरा जीव अनादि काल से भव-भ्रमण कर रहा है। पहले कभी अव्यवहार राशि में था, फिर व्यवहार राशि में आया, अनन्त काल निगोद में ही गुजर गया, फिर नरक, तिर्यंच की वेदनाएँ सहीं, असंख्यात काल तक एकेन्द्रिय रहा, फिर संख्यात काल द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय में गुजर गया, पंचेन्द्रिय बना तो मनरहित रहा, मनसहित भी हुआ तो पशु-पक्षी बन गया, नरक की वेदना भी सही । मनुष्य बना तो आर्य-क्षेत्र, उत्तम कुल न मिला, मिल भी गया तो धर्म की ओर रुचि न हुई, संयम में पराक्रम न किया। भाग्ययोग अथवा पुण्यबल से अब मुझे ये सब संयोग प्राप्त हो गये हैं तो अब मुझे मुक्ति की साधना में अपना संपूर्ण बल- वीर्य-पराक्रम लगा देना चाहिये। इस प्रकार के चिन्तन से साधक को अन्तर् जागरण की प्रेरणा प्राप्त होती है, उसका अन्तर् हृदय जाग्रत हो जाता है और वह मुक्ति-मार्ग पर चल पड़ता है, मुक्त होने के लिए पूर्ण पुरुषार्थ करता है। वह बोधि और संबोधि को प्राप्त करता है। इस प्रकार इन बारह अनुप्रेक्षाओं ( भावनाओं) के चिन्तन-मनन द्वारा साधक अपनी वैराग्य भावना दृढ़ करता है। ज्ञान की जुगाली एक अपेक्षा से अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन को ज्ञान की जुगाली भी कह सकते हैं। जिस प्रकार गाय आदि पशु पहले तो घास आदि को उदरस्थ कर लेते हैं और फिर उस घास को शीघ्रता से और भली-भाँति हजम करने के लिए एकान्त-शान्त स्थान पर बैठकर अवकाश के समय जुगाली करते हैं, इससे वह घास अच्छी तरह पच जाती है। उसी प्रकार साधक भी धर्मग्रंथों के स्वाध्याय तथा गुरु-उपदेश से प्राप्त ज्ञान को पहले तो श्रवण और चक्षु इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण कर लेता है और फिर शांत - एकान्त क्षणों में उस पर चिन्तन-मनन करता है, स्मृति पटल पर लाकर उस पर गहराई से विचार करता है। इस प्रक्रिया से गुरु उपदिष्ट तथा स्वाध्याय से प्राप्त ज्ञान उसे हृदयंगम हो जाता है। अतः अनुप्रेक्षाओं को ज्ञान जुगाली भी कह सकते हैं। वैराग्य भावनाएँ भावनाओं के वर्गीकरण में द्वादश अनुप्रेक्षाओं को वैराग्य भावना कहा गया है । वैराग्य भावना कहने का कारण यह है कि इनके चिन्तन से साधक का वैराग्य, भाव तीक्ष्ण, निर्मल एवं दृढ़ होता है। * भावनायोग साधना 223
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy