SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मभावना के अनुचिंतन में साधक धर्म (केवलिप्रज्ञप्त धर्म) के विविध पहलुओं का चिन्तन करता है तथा उससे आत्मा को भावित करता है। श्रुतधर्म तथा चारित्रधर्म के भेद-प्रभेद और लक्षणों तथा अहिंसा, संयम और तप आदि का चिन्तन करता है। इस चिन्तन से साधक की आत्मा में, उसके रग-रग में, आचार-विचारव्यवहार में सर्वत्र धर्म रम जाता है, उसकी आत्मा धर्म से भावित हो जाती है और उसका सम्पूर्ण जीवन ही धर्ममय बन जाता है। वास्तविक अर्थ में वह धर्मात्मा (धर्ममय आत्मा) बन जाता है। धर्म भावना से साधक धर्म के सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्य को हृदयंगम कर लेता है। उसके इस धर्ममय आचरण से उसके जीवन में सुख-शान्ति का सागर लहराने लगता है और उसकी आत्मिक उन्नति होती है। (11) लोक भावना : आस्था की शुद्धि साधक लोक भावना का अनुचिन्तन करते हुए षड्द्रव्यात्मक लोक का विचार करता है। जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश, काल-इन छह द्रव्यों तथा उनके गुणों और पर्यायों पर विचार करता है। लोक की शाश्वतता, अशाश्वतता, इसके रचयिता अथवा स्वयं निर्मित, उसके संस्थान आदि बातों पर विचार करता है और फिर इस लोक में अपनी स्थिति पर चिन्तन करता है। इस संपूर्ण चिन्तन से साधक की आस्था शुद्ध हो जाती है, वह लोक के वास्तविक स्वरूप को समझ जाता है। उसकी जिनवचनों के प्रति श्रद्धा प्रगाढ़ हो जाती है। ___लोकानुप्रेक्षा द्वारा साधक को अपनी (आत्मा की) अनादिकालीन लोक यात्रा का अन्त पाने की कुञ्जी प्राप्त हो जाती है, उसका आस्तिक्य भाव शुद्ध और दृढ हो जाता है। वह लोक के स्वीकार के साथ-साथ अपनी तथा अन्य जीवों और द्रव्यों की स्थिति भी स्वीकार करता है। अन्य जीवों के प्रति उसमें सहिष्णुता और कल्याणभावना जागृत होती है। यह कल्याणभावना स्वयं उसके कल्याण का भी साधन बनती है। (12) बोधिदुर्लभ भावना : अन्तर्जागरण की प्रेरणा बोधि का अभिप्राय है-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की उपलब्धि। इसकी उपलब्धि बहुत ही कठिन है। इस भावना का अनुचिंतन करते हुए साधक, जीव की क्रमिक उन्नति *222 * अध्यात्म योग साधना *
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy