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________________ संवर की साधना वह दो रूपों में करता है । द्रव्यरूप से वह योगों को (मन-वचन-काय को), कषाय आदि को स्थिर रखता है और भावरूप से वह मन के संकल्पों - विकल्पों, आवेगों-संवेगों को रोकता है। इस प्रकार साधक अनास्रव अथवा संवर की साधना करके कर्मबन्ध को रोकता है, अन्तश्छिद्रों को ढांकता है और मुक्ति की ओर अग्रसर होता है। (9) निर्जरा भावना : आत्मशुद्धि की साधना निर्जरा, आत्मशुद्धि की प्रक्रिया है। आत्मा के साथ जो कर्म बँधे हुए हैं, उनको आत्मा से दूर करना, झाड़ना, बन्धनमुक्त करना निर्जरा है। वह निर्जरा तप के द्वारा की जाती है। इस भावना के अनुचिंतन में साधक निर्जरा के लक्षण, स्वरूप और साधनों के बारे में बार-बार चिन्तन-मनन करता है। इस चिन्तन से साधक की आत्मा में तप, दान, शील के प्रति आकर्षण बढ़ता है। तप करने की हृदय में भावना जगती है तथा उत्साह एवं साहस भी उत्पन्न होता है। इस, आत्मिक साहस, उत्साह और भावना से भी कर्मों की निर्जरा होती है और जब वह तप के मार्ग पर चल पड़ता है, तप करने लगता है, तो वह सभी कर्मों से मुक्त होकर शुद्ध बन जाता है। तब इस प्रकार निर्जरा भावना आत्म शुद्धि का साधन बन जाती है और साधक इस भावना के द्वारा अपनी आत्मा की शुद्धि का प्रयास करता है। साधक में अदम्य साहस व तितिक्षा वृत्ति जागृत होती है। (10) धर्म भावना : आत्मोन्नति की साधना धर्म, आत्मा की उन्नति का साधन है। धर्म से ही आत्मा को श्रेयस् की प्राप्ति होती है। धर्म ही प्राणी को संसार के दुःखों से बचाकर मुक्ति के उत्तम सुख में पहुँचाता है।' वह धर्म, अहिंसा, संयम और तप रूप है और वही सर्वोत्तम मंगल है | 1. 2. - 3. तप का वर्णन 'तपोयोग' नामक अध्याय में किया गया है। धर्मं कर्मनिवर्हणं संसारदुःखतः सत्त्वान्यो धरत्युत्तमे सुखे । धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो। - रत्नकरंड श्रावकाचार, श्लोक 2 - दशवैकालिक 1/1 * भावनायोग साधना 221
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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