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साधक इस अशुचि शरीर को अन्दर से अन्दर देखता है और झरते हुए विविध स्रोतों को भी देखता है।'
शरीर की अशुचिता को देखने से साधक के मन में इस शरीर के प्रति रागासक्ति मिट जाती है और वह पावनता तथा पवित्रता की ओर मुड़ता है। पवित्रता उसे दिखाई देती है आत्मा में, आत्मिक गुणों में। उसका शरीर - सौन्दर्य के प्रति मोह मिट जाता है और पवित्रात्मा के अनुभव की ओर वह मुड़ जाता । वह अपनी आत्मा पर अपना ध्यान केन्द्रित करने लगता है।
है।
अशुचि भावना, इस प्रकार साधक के लिए शुचिता की ओर, पवित्रता की ओर जाने का मार्ग प्रशस्त करती है और उसे आत्म- ध्यान की ओर अभिमुख करती है।
(7) आस्रव भावना : अन्तर् भावों का निरीक्षण अब तक की 6 भावनाएँ बाह्य जगत से सम्बन्धित थीं। उनके अनुचिन्तन द्वारा साधक बाह्य जगत, शरीर आदि के प्रति ममत्व एवं आसक्ति का विसर्जन करता था, उनके प्रति मोह को तोड़ता था किन्तु इस आस्रव भावना द्वारा वह अपने आन्तरिक जगत का निरीक्षण करता है। वह देखता है कि मन-वचन-काय - इन तीनों योगों की प्रवृत्ति के कारण कर्मों का आगमन हो रहा है।
कर्मों का आगमन ही आस्रव है। यह आस्रव पाँच प्रकार का होता है - (1) मिथ्यात्व (2) अविरति, (3) प्रमाद, (4) कषाय और ( 5 ) योग । इनमें से मिथ्यात्व का नाश तो वह पहले ही कर चुका होता है; शेष चार प्रकार के आस्रव ही उसको शेष होते हैं। उनका निरीक्षण करके साधक उन्हें न होने देने का प्रयास करता है।
आस्रव भावना की साधना द्वारा साधक को कर्मबन्ध के हेतुओं का परिज्ञान हो जाता है, अतः उसमें उनसे विरति की भावना आती है और वह आस्रव के कारणों को अनास्रव के कारण' बनाने की ओर गतिशील होता है।
आस्रव वास्तव में आत्मा के छिद्र हैं। नाव में जिस प्रकार छिद्रों से पानी भरता है और पानी भरने से नाव को डूबने का खतरा पैदा होता है, उसी
1. जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो ।
अंतो अंतो देहन्तराणि पासति पुढो वि सवंताई ।
आचारांग 1/4/2/441
2.
- आचारांग 2/5/92
* भावनायोग साधना 219