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________________ लेकिन इस एकत्व का अभिप्राय यह नहीं है कि वह अपने को असमर्थ समझने लगता है। असमर्थता की भावना तो कायरता है, जो सम्यक्त्व के प्रथम स्पर्श में ही छूट जाती है। इस एकत्व भावना के अनुचिंतन से तो साधक में प्रबल पुरुषार्थ जागता है। वह इतना पुरुषार्थी हो जाता है कि अकेला ही अपनी साधना के पथ पर बढ़ने का प्रयास करता है। इससे पर-सहायनिरपेक्षता के संस्कार दृढ़ होते हैं। ___ एकत्व की भावना के अनुचिन्तन से साधक सर्वसंयोगों से विरक्त होकर आत्मिक चिन्तन में अपना पुरुषार्थ प्रगट करता है। एकत्व भाव के साथ धर्म की साधना-उपासना करता है। भगवान के शब्दों में-“एगं चरेज्ज धम्मो"-अकेले ही धर्म का आचरण करो-यही उसकी वृत्ति-प्रवृत्ति हो जाती है। (5) अन्यत्व भावना : भेदविज्ञान की साधना ___अन्यत्व भावना के अनुचिन्तन से साधक भेदविज्ञान की साधना करता है। भेदविज्ञान का अर्थ है-हसविवेक-नीर-क्षीर न्याय। वह इस भावना द्वारा आत्म और अनात्म दोनों को पृथक समझता है। आत्मिक गुणों और भावों के अतिरिक्त अन्य सभी भावों-यथा क्रोध, मान आदि कषायों के भाव और राग-द्वेषों के तथा काम-भोग के साधन और इनको प्राप्त करने की इच्छाओं, आशाओं को अन्य मानता है। इस अन्यत्व भावना के बार-बार अनुचिंतन तथा अभ्यास से साधक का भेदविज्ञान सुदृढ़ हो जाता है, अन्य वस्तुओं को प्राप्त करने की उसकी इच्छा क्षीण होती है, इन्द्रियों के विषयों की ओर रुचि कम हो जाती है, ममत्वभाव कम होकर समत्वभाव प्रादुर्भूत हो जाता है। साधक का दृढ़ विश्वास हो जाता है कि ममत्व ही दुःख, चिन्ताओं और मानसिक उद्वेगों का कारण है, अतः वह ममत्व को छोड़कर समत्व में लीन होता है। इन सब से अपनी आत्मा को भिन्न समझता है। इस प्रकार उसका अन्यत्व भाव सुदृढ़ होता है। (6) अशुचि भावना : पावनता की ओर प्रयाण अशुचिभावना का अनुचिंतन करता हुआ साधक अपने शरीर की अशुचि को देखता है। यह शरीर जैसा बाहर है, वैसा ही भीतर है; और जैसा भीतर है वैसा ही बाहर है। 1. सूत्रकृतांग 2/1/13 * 218 * अध्यात्म योग साधना *
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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