SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (8) मन से देखने-जानने का अभ्यास - शरीर के अन्दर, श्वास, संकल्प-विकल्प, आवेग - संवेग इतने सूक्ष्म हैं कि उन्हें चर्मचक्षुओं से देखना सम्भव ही नहीं है, वे तो मन की आँखों से - विवेक नेत्रों और ज्ञान चक्षुओं से ही देखे जाने जा सकते हैं। अतः इन्द्रियों की पराधीनता समाप्त हो जाती है और ज्ञान - चक्षु खुल जाते हैं, साधक ज्ञान चक्षुओं से किसी भी वस्तु को देखने-जानने का अभ्यस्त हो जाता है। इस प्रकार प्रेक्षाध्यान की साधना, साधक के लिए बहुत ही लाभकारी है। इससे उसकी राग-द्वेष की वृत्ति का संक्षय होता है, ज्ञाता - द्रष्टाभाव का विकास होता है और यदि एक रात वह अनिमेष - अपलक प्रेक्षा करने में सक्षम हो सके तो उसे कैवल्य की प्राप्ति तक हो सकती है। वस्तुतः प्रेक्षाध्यान विचयध्यान (धर्मध्यान) का ही एक रूप है। इसे अन्त मानना साधक के लिए उचित नहीं है, यह तो आदि-बिन्दु ही है। किन्तु यह विस्तृतता की प्रवृत्ति रखता है । जिस प्रकार पानी पर तेल की बूँद फैल जाती है उसी प्रकार यह प्रेक्षाध्यान भी शरीर से आत्मा तक फैलाव कर लेता है, विस्तृत हो जाता है। यह इसका सर्वाधिक महत्त्व है। ००० * प्रेक्षाध्यान-योग साधना 211
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy