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प्रेक्षा शब्द का प्रयोग संप्रेक्षा के अर्थ में किया जाता है। जो अभिप्राय संप्रेक्षा शब्द से अपेक्षित है, वही प्रेक्षा शब्द से लिया जाता है। दूसरे शब्दों में संप्रेक्षाध्यान-योग' ही प्रेक्षाध्यान-योग है।
चेतना अथवा आत्मा का मूल लक्षण उपयोग है। उपयोग के दो रूप हैं- (1) दर्शनोपयोग और (2) ज्ञानोपयोग । दर्शन यानी देखना और ज्ञान यानी जानना। अतः देखना और जानना आत्मा का स्वभाव है। किन्तु कर्मों से आवृत होने के कारण आत्मा की यह देखने-जानने की क्षमता में क्षीणता आ जाती है। अतः उस क्षमता को आत्मा के स्वभाव को विकसित करने के लिए भगवान ने साधक को सूत्र दिया - देखो और जानो । आत्मा को, आत्मा से, आत्ममय देखो। स्थूल चेतना से सूक्ष्म चेतना को देखो। स्थूल मन से सूक्ष्म मन को देखो; इसके प्रकंपनों को देखो। स्थूल शरीर को देखो, उसमें होते हुए प्रकंपनों-परिवर्तनों को देखो। तैजस शरीर और उसके प्रकंपनों को देखो, शक्ति - केन्द्रों, मर्मस्थानों और चक्रस्थानों को देखो। कषायों के आवेगों-संवेगों को देखो। आदि.....आदि.......
देखना मूल तत्त्व है। इसीलिए इसे प्रेक्षाध्यान ( संप्रेक्षाध्यान) कहा गया
है।
प्रेक्षाध्यान आगमवर्णित धर्मध्यान के भेद-विचयध्यान का ही एक प्रकार है।
प्रेक्षाध्यान का सूत्र
प्रेक्षाध्यान का प्रमुख सूत्र है - सिर्फ देखना। देखना, सिर्फ देखना हो । उस समय मन में न किसी प्रकार के विचार आवें और न संकल्प-विकल्प ही उठें। न राग-द्वेष का अंश हो, न किसी प्रकार की आशा - अभिलाषा । देखने में आत्मा तल्लीन हो जाये।
जिस समय आत्मा सिर्फ देखता है, उस समय वह विचार नहीं कर
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(क) संप्रेक्षा अथवा प्रेक्षाध्यान ही बौद्ध दर्शन का विपश्यना ध्यान है। उसकी क्रिया-प्रक्रिया भी प्रेक्षा ध्यान के समान ही है। (ख) द्रष्टुर्दृगात्मता मुक्तिर्दृश्यैकात्म्यं भवभ्रमः।
उपयोगो लक्षणं ।
- अध्यात्मोपनिषद्, ज्ञानयोग; श्लोक 5 - तत्त्वार्थसूत्र 218
* प्रेक्षाध्यान-योग साधना 201