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. उपसर्ग विजय परीषहों के साथ उपसर्गों का चोली-दामन का-सा साथ है। जिस प्रकार श्रमण परीषहों पर विजय प्राप्त करता है उसी प्रकार वह उपसर्गों को भी निर्भयतापूर्वक जीतता है। उस समय वह न मन में दीनता का भाव लाता है
और न उन उपसर्गों को अपनी मन्त्र शक्ति अथवा विशिष्ट लब्धियों के बल पर दूर करने का ही प्रयास करता है, वरन् अपनी आत्म-शक्ति से तितिक्षापूर्वक उन पर विजय प्राप्त करता है।
उपसर्ग तीन प्रकार के होते हैं-देवकृत, मनुष्यकृत और तिर्यंचकृत।
देव कई कारणों से श्रमण पर उपसर्ग करते हैं-(1) पूर्वभव के वैर विपाक से, (2) श्रमण की परीक्षा लेने के उद्देश्य से, (3) कभी हास्य (कौतुक) से भी देव उपसर्ग करते हैं, (4) कभी पूर्व राग के कारण भी देव श्रमण को अनुकूल उपसर्ग करते हैं।
मनुष्यकृत उपसर्ग भी इन्हीं कारणों से होते हैं।
तिर्यंचकृत उपसर्ग-भय से, द्वेष से, आहार के लिए तथा अपनी सन्तान-रक्षा के कारण होते हैं।
इन तीनों के अतिरिक्त आत्म-संवेदन रूप उपसर्ग और होते हैं। वे चार प्रकार के हैं-(1) अंगों को परस्पर रगड़ने से, (2) अंगुलि आदि अंगोपांगों के चिपक जाने या कट जाने से, (3) रक्त संचार के रुक जाने से अथवा ऊपर से गिर जाने से तथा (2) वात-पित्त-कफ के प्रकुपित हो जाने से।
इस तरह अनेक प्रकार के उपसर्गों को श्रमण अपने आत्म-बल के द्वारा जीतता है।
उपसर्ग और परीषह : श्रमण की तितिक्षा की कसौटी उपसर्ग तथा परीषह कैसे भी क्यों न हों, सबके सब श्रमण की तितिक्षा की-सहनशीलता और समभाव की कसौटी हैं। यदि श्रमण इन्हें समभावपूर्वक जीत लेता है तो वह विजयी हो जाता है और यदि कहीं आकुल-व्याकुल हो गया. मस्तिष्क में ईर्ष्या-द्वेष के संस्कार उदबुद्ध हो गये तो वह अपनी साधना से, अपने गौरवपूर्ण पद से विचलित हो जाता है।
श्रमण द्वारा परीषह और उपसर्गों की विजय उसकी तितिक्षायोग की साधना है। यह साधना जितनी ही बलवती होती है श्रमण उतनी ही सरलता और सहजता से उपसर्ग-परीषहों पर विजयी हो जाता है, उसकी साधना चमक उठती है।
* तितिक्षायोग साधना * 193 *