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उपेक्षा ही करता है, गाली देने और प्रहार करने वाले पर रोष या आक्रोश नहीं करता, अपितु उन्हें अपनी कर्मनिर्जरा में सहायक समझकर उपकारी ही मानता है। इस प्रकार वह प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शान्त रहता है।
याचना परीषह पर विजय प्राप्त करना विनम्रता और अहंकार भाव के विसर्जन की साधना है। श्रमण को सभी वस्तुएँ याचना से ही प्राप्त हो पाती हैं। अतः जीवनोपयोगी वस्तुओं के लिए उसे सद्गृहस्थ से याचना करनी ही पड़ती है। और याचना अभिमान - त्याग तथा हृदय की ऋजुता एवं सरलता के अभाव में हो नहीं पाती। अतः ' याचना परीषह जय' का आशय ही श्रमण की ऋजुता है।
याचना करने पर भी यह सम्भव है कि आवश्यक वस्तु मिले और न भी मिले। लाभ और अलाभ दोनों ही स्थितियों में श्रमण सम रहता है, हर्ष - शोक नहीं करता।
यों तो श्रमण की दिनचर्या तथा तपोसाधना ऐसी है कि साधारणतया उसे कोई रोग नहीं हो पाता, फिर भी पूर्वकृत कर्म - दोष के कारण अथवा पथ्य-अपथ्य आहार के कारण यदि कभी कोई रोग हो जाय तो पीड़ा - चिन्ता करके आर्तध्यान नहीं करता, वह सावद्य ( सदोष) चिकित्सा का अभिनन्दन भी नहीं करता, अनाकुल भाव से सहज शान्त बना रहता है।
शयन करते समय अथवा मार्ग में चलते समय श्रमण को तृण-स्पर्श हो जाये, काँटे, शूल आदि चुभ जायें तो वह उस तृण की तीखी चुभन से व्याकुल नहीं होता, अपितु समभाव में रहता है।
श्रमण स्नान नहीं करता । गरमियों में पसीना आता है, उस पर मैल जम जाता है, धूल आदि उड़कर भी जम जाती है, किन्तु श्रमण उस मैल की पीड़ा से व्यथित नहीं होता ।
वस्तुतः देह के प्रति श्रमण का निर्ममत्व होता है। उसकी दृष्टि आत्मकेन्द्रित होती है, शरीर - केन्द्रित नहीं ।
इसी प्रकार साधक घोर तप करके भी यह सोचकर व्यथित नहीं होता कि मुझे दिव्यज्ञान क्यों नहीं प्राप्त हो रहा है। न वह अपनी श्रद्धा से ही डगमगाता है। यदि उसे विशिष्ट ज्ञान हो, उसकी तर्कणा शक्ति प्रबल हो तो उसका अहंकार नहीं करता ।
192 अध्यात्म योग साधना