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प्रज्ञा-पुरुष आचार्य सम्राट श्री आत्माराम जी महाराज
परम श्रद्धेय आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज एक युगपुरुष थे। सम्पूर्ण जैन समाज में वे विशाल हृदय के प्रज्ञा / मेधा के प्रज्वलित दीप की भांति प्रकाशकर थे। उनके जीवन में जैन धर्म, दर्शन, संस्कृति और सभ्यता साकार हुए थे। ऐसा लगता था कि उनका अणु-अणु, रोम-रोम ज्ञानमय था। ___ बातचीत में वे बहुत ही पटु, साथ ही विनोदप्रिय थे। अनुशासन में दृढ़ व दक्ष भी थे, साथ ही स्वयं अनुशासन का पालन करने के कठोर पक्षधर थे। आचार व्यवहार में सात्विक अति सहज होते हुए भी वे अपनी मर्यादा एवं नियमों के प्रति बड़े जागरूक व अति दृढ़ थे।
संस्कृत-प्राकृत-पालि जैसी प्राचीन भाषाओं पर आपका असाधारण अधिकार था। जैन आगमों पर सरल हिन्दी में उच्चस्तरीय टीकाएँ लिखकर आपने प्राचीन आगम-ज्ञान को युग की भाषा प्रदान की।
आपका जन्म वि.सं. 1939 भाद्रपद शुक्ला द्वादशी को जालन्धर जिला के राहों ग्राम में हुआ था।
क्षत्रिय कुल (चोपड़ावंश) के सेठ मनसाराम जी आपके पिता एवं श्री परमेश्वरी देवी माता थी।
बचपन में माता-पिता का साया उठ गया। संघर्ष एवं कठिनाइयों में बचपन बीता। लुधियाना में जैनाचार्य श्री मोतीराम जी महाराज के चरणों में पहुंच गए। बस, पारस से भेंट हो गई तो सोना बनते क्या देर! वैराग्य एवं विवेक के संस्कार जगे और जैन श्रमण बनने का सुदृढ़ संकल्प जग गया।
वि.सं. 1951 आषाढ़ शुक्ला 5 छतबनूड़ (पटियाला) में श्रद्धेय श्री सालिगराम जी महाराज के सान्निध्य में श्रमण दीक्षा ग्रहण की। इस प्रकार दीक्षा-गुरु बने श्री सालिगराम जी महाराज तथा विद्यागुरु बने आचार्य श्री मोतीराम जी महाराज।
प्रखर प्रतिभा, तीव्र स्मरण शक्ति और दृढ़ अध्यवसाय के बल पर संस्कृत-प्राकृत भाषा पर अधिकार प्राप्त किया।
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