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काय) का निरोध करके अपने-अपने मार्ग में (आत्म-भाव अथवा आध्यात्मिक भाव में) स्थापित करना गुप्ति' है।
सामान्यतः मन-वचन-काय की प्रवृत्ति संसाराभिमुखी और राग-द्वेष आदि कषायों की ओर रहती है। गुप्तियों द्वारा श्रमणयोगी कषायरूपी वासनाओं से अपनी आत्मा की रक्षा (गोपन) करता है। ____ गुप्ति के भेद-गुप्ति के तीन प्रकार हैं-(1) मनोगुप्ति, (2) वचन-गुप्ति और (3) कायगुप्ति।
(1) मनोगुप्ति-राग-द्वेष आदि कषायों की ओर प्रवृत्त मन को रोकना मनोगुप्ति है। इसे और स्पष्ट करने के लिए कह सकते हैं कि संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ की प्रवृत्तियों की ओर जाते हुए मन को मनोगुप्ति द्वारा रोका जाता है। मन को असद् एवं अशुभचिन्तन से बचाना मनोगुप्ति है।
(2) वचनगुप्ति-वचनगुप्ति का साधक श्रमणयोगी या तो मौन का अवलम्बन लेता है अथवा बोलता भी है तो सत्य-वचन ही उसके मुख से निकलते हैं। असत्य न बोलना तथा मौन रहना वचन गुप्ति है। साधक ऐसे सत्य वचन भी नहीं बोलता जिनसे सुनने वाले को दु:ख और पीड़ा हो, क्योंकि ऐसे वचन सत्य होते हुए भी हिंसाकारी होने से त्याज्य हैं। इसलिये कहा गया है-असत्य, कठोर, आत्मश्लाघी वचन बोलने से सुनने वालों के मन को चोट पहुँचती है, उन्हें पीड़ा का अनुभव होता है, इसलिये वाचना, पृच्छना, प्रश्नोत्तर आदि में भी विवेक रखना (सीमित और नपे-तुले शब्द बोलना) तथा अन्यत्र भाषा का निरोध करना-मौन रहना, न बोलना
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(क) सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक त्रिविधयोगस्य शास्त्रोक्त विधिनास्वाधीन-मार्ग व्यवस्थापनरूपत्वं गुप्ति सामान्यस्य लक्षणम्।
-आर्हत्दर्शन दीपिका 5/642 (ख) वाक्कायचित्तजाऽनेकसावधप्रतिषेधक। त्रियोगरोधकं वा साद्यत्तद्गुप्तित्रयं मतम्।।
-ज्ञानार्णव 18/4 सद्धं नगरं किच्चा, तवसंवरमग्गलं। खंतिं निउणपागारं, तिगुत्तं दुप्पधंसयं।।
-उत्तराध्ययन 9/20 जा रागादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगुत्ति। -मूलाराधना 6/1187 संज्ञादिपरिहारेण यन्मौनस्यावलम्बनं। वाग्वृत्तै संवृत्तिर्वा या सा वाग्गुप्तिरिहोच्यते।।
-योगशास्त्र 1/42
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* 156 * अध्यात्म योग साधना *