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इस भूमिका पर अवस्थित गृहस्थयोगी की श्रद्धा इतनी प्रगाढ़ और निर्मल होती है कि देव-दानव-मानव आदि कोई भी उसे उसकी श्रद्धा से विचलित नहीं कर सकते; कितनी भी प्रतिकूल एवं कष्टमय परिस्थितियाँ सामने आ जायें किन्तु वह अपनी श्रद्धा को नहीं छोड़ता; प्राणों की बाजी लगाकर भी अपनी श्रद्धा पर अटल रहता है। भय एवं प्रलोभन उसे विचलित नहीं कर सकते।
(2) व्रत प्रतिमा
(विरति की ओर बढ़ते चरण) इस प्रतिमा में गृहस्थयोगी श्रावक व्रतों का पालन करता है। योग-मार्ग की दृष्टि से यह प्रतिमा 'यम' के अन्तर्गत है। गृहस्थयोगी इस प्रतिमा को धारण करने पर मूल व्रतों (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) का पालन सम्यक् प्रकार से करता है। उत्तर-व्रतों (नियमों-गुणव्रत और शिक्षाव्रतों) की भी साधना करता है।
इस प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक योग-मार्ग पर अपने सुदृढ़ चरण बढ़ा देता है।
(3) सामायिक प्रतिमा
(योग-साधना का प्रारम्भ) इस प्रतिमा का धारी गृहस्थयोगी, योग-साधना प्रारम्भ कर देता है। वह अपने सम्पूर्ण बल, वीर्य, उत्साह और उल्लास के साथ दो घड़ी (48 मिनट) तक सामायिक-समताभाव की साधना करता है।
सामायिक करते समय वह सामायिक के छह अंगों-(1) समताभाव, .(2) चतुर्विंशतिस्तव, (3) गुरुवन्दन, (4) प्रत्याख्यान, (5) कायोत्सर्ग और (6) प्रतिक्रमण की सम्यग् आराधना करता है।
समताभाव द्वारा वह राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करता है, तथा अपनी आत्मा का अनुभव करता है। चतुर्विंशतिस्तव और गुरुवन्दन तो भक्तियोग हैं ही। कायोत्सर्ग द्वारा देह से ममत्व त्याग करके ध्यान करता है। प्रत्याख्यान द्वारा वह अपनी सांसारिक भोगेच्छाओं को सीमित करता
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(क) आयारदसा; छठी दशा, सूत्र 18, पृष्ठ 55 (ख) विंशतिका 10/5 (ग) रत्नकरण्ड श्रावकाचार 138
* विशिष्ट योग-भूमिका : प्रतिमा-योगसाधना - 143 *