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________________ प्रतिमाओं की साधना करता है। ये 11 प्रतिमाएँ उसकी साधना की भूमिकाएँ हैं, जो उत्तरोत्तर उसका आत्मिक विकास करती हैं, उसकी आत्मा का योग - संयोग आत्मिक गुणों से कराती हैं। ये गृहस्थ साधक के आत्मिक विकास के सोपान हैं और हैं विशिष्ट साधना भूमिकाएँ। इन साधना भूमिकाओं की साधना करते हुए उसमें आत्म- गुणों के विषय में अत्यधिक श्रद्धा और दृढ़ता जाग्रत होती है। ये साधना भूमिकाएँ - प्रतिमाएँ क्रमशः 11 हैं - ( 1 ) दर्शन, (2) व्रत, (3) सामायिक, (4) पौषध, ( 5 ) नियम, (6) ब्रह्मचर्य, (7) सचित्तत्याग, (8) आरम्भत्याग, (9) प्रेष्य- परित्याग अथवा आरम्भ परित्याग, (10) उद्दिष्टभक्तत्याग और ( 11 ) श्रमणभूत । (1) दर्शन प्रतिमा (शुद्ध, अविचल एवं प्रगाढ़ श्रद्धा) इस प्रतिमा की नींव शुद्ध, अविचल, निर्मल और प्रगाढ़ सम्यग्दर्शन है। इसकी आराधना अविरत सम्यग्दृष्टि करता है। इसके लिए किसी भी व्रत को धारण करना आवश्यक नहीं है। सिर्फ निर्दोष' सम्यग्दर्शन होना अनिवार्य है। यह प्रतिमा गृहस्थयोगी की योग- मार्ग पर आगे बढ़ने की प्रथम और आधारभूत भूमिका है। इसमें वह अपने निज धर्म (आर्हत धर्म और निर्ग्रन्थ प्रवचन) तथा देव-गुरु-धर्म पर दृढ़ श्रद्धा रखता है। यह सम्यग् श्रद्धा ही योग की प्रथम भूमिका है। किन्तु इस प्रतिमायोग का धारी किसी भी प्रकार के व्रत - नियमों का पालन करने की स्थिति में नहीं होता । इस प्रतिमा का लक्षण बताते हुए कहा गया है - जो गृहस्थयोगी संसार व शरीर के भोगों से विरक्त हो, जिसका सम्यग्दर्शन शुद्ध हो, जिसको केवल पंच परमेष्ठी ही शरण हो, तथा सत्य मार्ग का ग्रहण करने वाला हो, वह दर्शन प्रतिमा का धारी दार्शनिक योगी होता है। सम्यग्दर्शन के मल अथवा दोष 25 हैं - (1) शंका आदि आठ दोष, (2) आठ मद, (3) छह अनायतन और (4) तीन मूढ़ता । सव्वधम्मरुइ यावि भवति । तस्स णं बहूइं सीलवय गुणवय पच्चक्खाण पोसहोववासाई नो सम्मपट्ठवित्ताइं भवन्ति । - आयारदसा 6/17, पृ. 54 रत्नकरण्ड श्रावकाचार 137 * 142 अध्यात्म योग साधना 1. 2. 3.
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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