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गमनागमन की कोई सीमा ही नहीं रही। इस व्रत में सुश्रावक गमनागमन की सीमा निश्चित करता है और अपनी निश्चित सीमा से बाहर किसी भी प्रकार की स्वार्थमूलक प्रवृत्ति नहीं करता। वह दशों दिशाओं में अपने गमनागमन की सीमा निश्चित कर लेता है।
इस गुणव्रत का महत्त्व इतना अधिक है कि निश्चित किए हुए क्षेत्र से बाहर के लिए वह त्रस और स्थावर - दोनों प्रकार के जीवों की घात से विरत हो जाता है; उसके अहिंसाणुव्रत में गुणात्मक वृद्धि हो जाती है ।
इसके पाँच अतिचार हैं - ( 1 ) ऊर्ध्वदिशा में मर्यादा का अतिक्रमण, ( 2 ) अधोदिशा में मर्यादा का अतिक्रमण, (3) तिरछी दिशा (चारों दिशाओं और चारों विदिशाओं) में मर्यादा का अतिक्रमण, (4) क्षेत्र वृद्धि - असावधानी या भूल से मर्यादा को बढ़ा लेना अथवा किसी एक दिशा के परिमाण को कम करके दूसरी दिशा में मर्यादा बढ़ा लेना, ( 5 ) स्मृति अन्तर्धान- किसी दिशा में श्रावक गमन कर रहा हो, किन्तु निश्चित की हुई मर्यादा को भूल जाये, भ्रम में पड़ जाये; फिर भी आगे बढ़ता रहे तो यह स्मृति अन्तर्धान नाम का अतिचार होता है।
(2) उपभोग - परिभोगपरिमाण व्रत
जो वस्तु एक बार ही उपयोग में आवे, जैसे- भोजन, पानी, आदि वह उपभोग कहलाती है और जिसका बार-बार उपयोग किया जा सके, जैसे - वस्त्र, आभूषण, फर्नीचर, मकान, कार, स्कूटर आदि वह परिभोग कहलाती है। श्रावक इन उपभोग - परिभोग की वस्तुओं को मर्यादित करता है।
यद्यपि परिग्रहपरिमाण अणुव्रत में श्रावक इन वस्तुओं की मर्यादा कर लेता है, किन्तु इस व्रत में वह उस मर्यादा को और भी संकुचित करता है । इससे उसके जीवन में सरलता और सादगी का संचार होता है तथा महारंभ, महापरिग्रह और महातृष्णा से वह मुक्त हो जाता है।
आगम' में उपभोग - परिभोग सम्बन्धी 26 वस्तुओं के नाम निर्देश किये गये हैं
(1) शरीर आदि पोंछने का अंगोछा आदि, (2) दाँत साफ करने का मंजन, टूथपेस्ट आदि, (3) फल, (4) मालिश के लिए तेल आदि, (5) उबटन के लिए लेप आदि, (6) स्नान के लिए जल, (7) पहनने के वस्त्र, (8) विलेपन के लिए चन्दन, (9) फूल, ( 10 ) आभरण, ( 11 ) धूप-दीप,
उपासक दशांग सूत्र, अध्ययन 1
* 118 अध्यात्म योग साधना **
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