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सत्कार तथा साधुओं को दान देने के लिए आवश्यक साधन, धन तथा सामग्री जुटानी पड़ती है। इसलिये वह अपनी मर्यादा तथा स्थिति के अनुसार इच्छाओं को सीमित करता है और तदनुसार बाह्य परिग्रह का परिमाण करता है।
इच्छा को भाव-परिग्रह कहा गया है। और धन-साधन आदि को द्रव्य-परिग्रह। श्रावक इन दोनों का ही परिमाण करता है।
परिग्रहपरिमाणव्रत के पाँच अतिचार हैं-(1) क्षेत्रवास्तु परिमाणातिक्रम-क्षेत्र (खुली जमीन, यथा-खेत, बगीचे, भूमि आदि) और वास्तु (Covered area-मकान, दुकान आदि) इनका जितना परिमाण किया हो, उसे बढ़ा लेना-अधिक कर लेना, (2) हिरण्य-सुवर्ण परिमाणातिक्रम-सोने-चाँदी (बने हुए जेवर, आभूषण, बर्तन, व अन्य उपकरण आदि) का जितना परिमाण किया हो, उसे बढ़ा लेना, (3) धन-धान्य परिमाणातिक्रम-धन (रुपया, पैसा, करैन्सी, नोट, शेयर, बैंक में जमा राशि आदि) धान्य (अनाज, दाल आदि) के परिमाण को बढ़ा लेना, (4) द्विपद-चतुष्पद परिमाणातिक्रमद्विपद (दास-दासी; दो पैर वाले तथा पक्षी-तोता-मैना-मोर आदि), चतुष्पद (गाय, बैल, घोड़ा, हाथी आदि; इसी में आधुनिक युग में मोटर, साइकिल, स्कूटर आदि की गणना की जाती है) के परिमाण का अतिक्रमण करना; (5) कुप्य परिमाणातिक्रम-घर अथवा व्यापार में उपयोग में आने वाले फर्नीचर, बर्तन, पलंग, मेज, कुर्सी, अलमारी आदि की जितनी मर्यादा निश्चित की हो, उसे बढ़ा लेना।
तीन गुणव्रत गुणव्रत उन्हें कहा जाता है जो पाँचों अणुव्रतों की रक्षा करते हैं, उनमें . स्वीकृत की हुई मर्यादाओं को और भी संकुचित करते हैं तथा अणुव्रतों के गुणों में वृद्धि करते हैं। ये संख्या में तीन हैं।
(1) दिक्परिमाण व्रत पाँचवें अणुव्रत-परिग्रह परिमाणव्रत में धन-सम्पत्ति की मर्यादा की जाती है और इस दिशा परिमाण व्रत में गमनागमन की मर्यादा निश्चित की जाती है। ___ यह मध्यलोक तो असंख्यात योजन विस्तृत है ही; किन्तु यह जाना हुआ विश्व भी काफी बड़ा है और मनुष्य इसमें स्वार्थमूलक प्रवृत्तियाँ करता ही रहता है। आजकल वैज्ञानिक साधनों के उपलब्ध होने से कभी आसमान की ऊँचाइयों को छूता है तो कभी समुद्र की गहराइयों को नापता है, उसके
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