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(33) परोपकार करने में उद्यत रहे। दूसरों पर उपकार करने का
अवसर आने पर पीछे न हटे। (34) काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य-इन छह आन्तरिक
शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाला हो। (35) इन्द्रियों को अपने वश में रखे।
यद्यपि इनमें से कुछ गुण ऐसे भी हैं, जो सिर्फ लोक-जीवन से ही सम्बन्धित हैं, प्रत्यक्ष रूप से इनका धर्म व योगमार्ग से कोई सम्बन्ध नहीं दिखाई देता किन्तु विशेष श्रावक-धर्म की सुदृढ़ पृष्ठभूमि के लिए इनका पालन करना भी आवश्यक है। इसका कारण यह है कि जीवन एक अखण्ड वस्तु है। धर्मस्थानक में कुछ और घर तथा व्यापारिक संस्थान में कुछ-इस प्रकार का दोहरा आचरण तो ढोंग और पाखण्ड का सेवन हो जायेगा। परिणामस्वरूप उसका समग्र आचरण पतित हो जायेगा और पतित आचरण वाला मनुष्य कभी भी आध्यात्मिक दृष्टि से उच्च श्रेणी पर नहीं चढ़ सकता। अतः श्रावक बनने के लिए, विशेष गृहस्थधर्म की भूमिका तक पहुँचने के लिए इन मार्गानुसारी के 35 गुणों को धारण करना आवश्यक है। तभी योगमार्ग पर चलने की क्षमता आ सकती है।
गृहस्थ का विशेष धर्म सामान्य गृहस्थधर्म का पालन करने के साथ-साथ सद्गृहस्थ को आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिए विशेष गृहस्थधर्म की ओर उन्मुख हो जाना चाहिये। यह विशेष गृहस्थधर्म ही योग की आधारभूमि है।
विशेष गृहस्थधर्म श्रावक के बारह व्रत रूप है। उसे इन व्रतों का पालन निरतिचार रूप से करना चाहिये। उनका (व्रतों का) अतिक्रमण नहीं करना चाहिये। जैन आगमों में चार प्रकार का अतिक्रमण बताया गया है
(1) अतिक्रम-व्रत को उल्लंघन करने का मन में ज्ञात या अज्ञात रूप से विचार करना।
(2) व्यतिक्रम-व्रत का उल्लंघन करने के लिए प्रवृत्ति करना। (3) अतिचार-आंशिक रूप से व्रत का उल्लंघन करना। (4) अनाचार-व्रत का पूर्णरूप से छूट जाना।
* 112 * अध्यात्म योग साधना *