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यही बात पतंजलि ने अपने योगसूत्र में कही है-जहाँ चित्त को लगाया जाये, उसी में वृत्ति का एक तार चलना ध्यान है।
वस्तुतः ध्येय में चित्त का एकाकार हो जाना ही ध्यान है। इस ध्यानयोग में साधक की ध्येयवस्तुगत एकाग्रता इतनी बढ़ जाती है कि उसको (साधक को) उस समय ध्येय के अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु का विचार भी नहीं आता। जिस आत्मा में यह ध्यानरूप योगाग्नि प्रज्वलित होती है और उसका कर्मरूप मल (जो अनादिकाल से आत्मा के साथ चिपका हुआ है) भस्म हो जाता है। उसके प्रकाश से रागादि का अन्धकार विनष्ट हो जाता है, चित्त सर्वथा निर्मल हो जाता है तथा मोक्ष मन्दिर का द्वार दिखाई देने लगता है।
. ध्यानयोग आत्मा को उसके वास्तविक स्वरूप में प्रतिष्ठित करने का प्रबलतम साधन है तथा आत्म-स्वातन्त्र्य, परिणामों की निश्चलता और जन्मान्तर से आत्मा के साथ सम्बद्ध कर्मों का विच्छेद-यह तीनों ध्यानयोग के फल हैं।
. (4) समतायोग समतायोग ध्यान में अत्यधिक उपयोगी होता है। अविद्या (मोह-मूढ़ता द्वारा कल्पित इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में विवेकपूर्वक तत्त्व निर्णय-बुद्धि से राग-द्वेष रहित होना अर्थात् पदार्थों में की जाने वाली इष्ट-अनिष्ट की कल्पना को केवल अविद्या का प्रभाव समझकर उनमें उपेक्षा धारण करना समता है। उसमें निविष्ट मन-वचन-काया के व्यापार का नाम समता-योग है।
1. तत्र .प्रत्ययैकतानता ध्यानम्। -पातंजल योगसूत्र 3/2 2. सज्झायसुज्झाणरयस्स ताइणो, अपावभावस्स तवे रयस्स। विसुज्झइ जंसि मलं पुरे कडं, समीरियं रुप्पमलं व जोइणा।।
-दशवैकालिक, 8/63 3. अविद्याकल्पितेषूच्चैरिष्टानिष्टेषु वस्तुषु।।
संज्ञानात् तद्व्युदांसेन समता समतोच्यते।। -योगबिन्दु 364 __इसीलिए आगमों में साधु को आदेश दिया गया है कि वह जगत् के समस्त प्राणियों को समभाव से देखे और राग-द्वेष के वशीभूत होकर किसी भी प्राणी का प्रिय अथवा अप्रिय न करे। यथा(क) सव्वं जगं तु समयाणुपेही पियमप्पियं कस्सवि णो करेज्जा। तथा
-सूयगडंग 1/10/7 (ख) पण्णसमत्ते सया जये, समताधम्ममुदाहरे मुणी। -सूयगडंग 1/2/2/6
अर्थात्-बुद्धिमान साधु (कषायों को) सदा जीते और समताधर्म का उपदेश दे।
* जैन योग का स्वरूप * 87 *