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इन बारह भावनाओं में से अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व और लोक-ये पाँच भावनाएँ धर्मध्यान में परिगणित की गई हैं तथा अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर निर्जरा, बोधिदुर्लभ और धर्म-ये सात भावनाएँ शुक्लध्यान के अन्तर्गत परिगणित की गई हैं। इन भावनाओं के सतत चिन्तन से साधक को धर्मध्यान-शुक्लध्यान की प्राप्ति होती है। (3) ध्यानयोग
ध्यान का वर्णन जैन आगमों में अनेक स्थलों पर हुआ है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में ध्यान का लक्षण देते हुए कहा है
स्थिर दीपशिखा के समान निश्चल-निष्कम्प तथा अन्य विषय के संचार से रहित केवल एक ही विषय का धारावाही प्रशस्त सूक्ष्म बोध जिसमें हो, उसे ध्यान कहते हैं।' ___इसी का अनुसरण करते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि ने कहा है
शुभ प्रतीकों के आलम्बन पर चित्त का स्थिरीकरण-ध्यान कहा जाता है। वह ध्यान दीपक की लौ के समान ज्योतिर्मान तथा सूक्ष्म और अन्तःप्रविष्ट चिन्तन से समायुक्त होता है।
श्री शीलांकाचार्य ने 'ज्झाणजोगं समाहर्ट्स" इस गाथा की टीका करते हुए चित्तनिरोध लक्षण धर्मध्यानादि में मन-वचन-काया के विशिष्ट व्यापार को ही ध्यान योग कहा है।
तत्त्वार्थ सूत्र में बताया गया है-अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त एक ही विषय पर चित्त की सर्वथा एकाग्रता अर्थात् ध्येय विषय में एकाकार वृत्ति का प्रवाहित होना ध्यान है।
2.
1. निव्वायस रयणप्पदीपज्झाणमिव निप्पकम्पे। -प्रश्नव्याकरण, संवर द्वार 5
शुभैकालम्बनं चित्तं ध्यानमाहुर्मनीषिणः। . स्थिर प्रदीपसदृशं सूक्ष्माभोगसमन्वितम्।।
-योगबिन्दु 362 3. 'ज्झाणजोगं समाहर्ट्स' की पूरी गाथा इस प्रकार है
ज्झाणजोगं समाहटु कायं विउसेज्ज सव्वसो।
तितिक्खं परमं नच्चा आमोक्खाए परिवएज्जासि॥ -सूयगडंग 1/8/26 4. ध्यानम्-चित्तनिरोध लक्षणं धर्मध्यानादिकं तत्र योगोविशिष्टमनोवाक्कायव्यापारस्तं
ध्यानयोगम्। 5. ....एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्।
-तत्वार्थसूत्र 9/27
*86 अध्यात्म योग साधना *