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तेजोलेश्या की प्राप्ति के दो साधन हैं-(1) जल और अन्न की अति सीमित मात्रा लेकर तपस्या करना तथा (2) सूर्य की आतापना लेना-सूर्य से शक्ति ग्रहण करना।
वस्तुतः तेजोलेश्या का स्थान तैजस् शरीर है। हठयोग विशारदों ने भी कुण्डलिनी का स्थान सूक्ष्म शरीर (Etheric body) माना है।
जिस प्रकार तेजोलेश्या-सिद्ध योगी में अनुग्रह और निग्रह की शक्ति होती है, शाप और वरदान की असीम सामर्थ्य होती है वैसी कुण्डलिनी-सिद्ध योगी में भी होती है। तेजोलेश्या भी प्रचण्डशक्ति है और कुण्डलिनी-शक्ति भी ऐसी ही है। तेजोलेश्या योगी के शरीर से निकलती है तो सूर्य का सा तीव्र प्रकाश और अग्नि-सी दाह उत्पन्न करती है, वैसा ही प्रभाव कुण्डलिनी शक्ति का है-योगी कोटि सूर्यप्रभा के समान प्रकाश देखता है।
तेजोलेश्या का एक दूसरा रूप भी है, वह है शीतल-लेश्या। जैन परम्परा के अनुसार वह उसी योगी को प्राप्त होती है जिसकी वासनाएँ (कषाय) क्षीण हो चुकी हैं। इसका प्रभाव शीतलतादायक होता है।
हठयोग के ग्रन्थों के अनुसार भी जब वासना-मुक्त (passion proof) योगी की कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर सहस्रार चक्र में पहुँचती है और शिव से उसका मिलन होता है तो वहाँ स्थित चन्द्र (शिवजी के मस्तक पर तथा सोमचक्र में चन्द्रमा स्थित माना गया है) से अमृत पाकर योगी को अनिर्वचनीय शीतलता और आनन्द की प्राप्ति होती है।
इस विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है जैन योग में वर्णित तेजोलेश्या हठयोग-तन्त्रयोग आदि में कुण्डलिनी शक्ति के नाम से वर्णित हुई है।
कुण्डलिनी का हठयोग में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसे उपनिषदों में 'नचिकेत अग्नि' कहा गया है। चैनिक योग दीपिका में इसे श्री I lohin द्वारा spirit fire (आत्मिक अग्नि) कहा गया है। मैडम ब्लेवेट्स्की ने इसकी गति 345000 मील प्रति सैकिण्ड बताई है।
इसके बारे में हठयोग के ग्रन्थों में अनेक प्रकार की सावधानियाँ रखने का निर्देश है, उनमें प्रमुख है कि जब तक साधक की वासना का क्षय न हो जाये, वह passion-proof न हो जाये तब तक कुण्डलिनी को जगाने का प्रयत्न उसे नहीं करना चाहिये, अन्यथा कुण्डलिनी शक्ति नीचे की ओर प्रवाहित होकर वासनाओं और कषायों के आवेग को अत्यधिक बढ़ा सकती है। यही बात योगविद्या (हठयोग) विशारद श्री हडसन (Hudson) ने अपनी पुस्तक Science of Seership में कही है* 80 * अध्यात्म योग साधना *