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कुण्डलिनी का सर्वप्रथम उल्लेख मंत्रराजरहस्य' नामक ग्रंथ में मिलता है। नमस्कार स्वाध्याय में कुण्डलिनी के नवचक्र 2 बताये गये हैं- ( 1 ) गुदा के मध्यभाग में आधार चक्र, (2) लिंग मूल के पास स्वाधिष्ठान चक्र, (3) नाभि के पास मणिपूर चक्र, (4) हृदय के पास अनाहत चक्र, (5) कण्ठ के पास विशुद्धि चक्र, (6) घण्टिका के पास ललना चक्र, (7) भ्रूचक्र के मध्य स्थित आज्ञा चक्र, (8) मूर्ध्वा - तालु रंध्र में स्थित सहस्रार चक्र, (9) ब्रह्मरंध्र अथवा ऊर्ध्व भाग में स्थित सुषुम्ना चक्र ।
यद्यपि इन चक्रों का तथा कुण्डलिनी का उल्लेख परवर्ती जैन शास्त्रों में मिलता अवश्य है किन्तु ऐसा मालूम होता है कि कुण्डलिनी का जैन योग में कोई विशेष महत्त्व नहीं रहा। उसका कारण यह है कि जैन योग का लक्ष्य साधना में चमत्कार या प्रभाव पैदा करना नहीं होकर कर्म- मुक्तदशा को प्राप्त करना है । यहाँ साधना की चरम परिणति मोक्ष है।
प्राचीन जैन योग प्रक्रिया का अनुशीलन करने पर यह स्पष्ट कह सकते हैं कि 'कुण्डलिनी योग', जैन योग में 'तेजोलेश्या ” के नाम से व्यवहृत हुआ है। क्योंकि जैसा स्वरूप जैन आगमों में तेजोलेश्या का बताया गया है, वैसा ही स्वरूप कुण्डलिनी शक्ति का हठयोग के ग्रन्थों में है।
जैन आगमों में भगवान महावीर के जीवन का एक प्रसंग वर्णित है। गोशालक ने भगवान महावीर से पूछा - भगवन् ! तेजोलेश्या की उपलब्धि कैसे हो सकती है?
भगवान महावीर ने बताया - जो साधक निरन्तर दो-दो उपवास करता है, पारणे के दिन मुट्ठी भर उड़द खाता है और चुल्लू भर जल पीता है तथा भुजा ऊपर उठाकर सूर्य की आतापना लेता है, उसे छह महीने में तेजोलेश्या की प्राप्ति हो जाती है । '
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यह ग्रंथ वि.सं. 1333 में रचा गया है । - देखिए - जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, पृष्ठ 310
गुदमध्य लिंगमूले नाभौ हृदि कण्ठघटिका भाले । मूर्धन्यमूर्ध्वे नवषटक (चक्र) ठान्ता पंच भाले युताः । ।
- नमस्कार स्वाध्याय (संस्कृत) पृ. 121 -सम्पादक
तेजोलेश्या का अभिप्राय यहाँ तेजोलब्धि है। भगवती सूत्र, शतक 15, सूत्र 76 (अंगसुत्ताणि) ।
जैन योग का स्वरूप 79