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________________ ( 8 ) तत्त्वाभिनिवेश - अन्त:करण में तत्त्व का निर्धारण करना । प्रवृत्तचक्रयोगी को तीनों अवंचक' स्वयं प्राप्त हो जाते हैं। तीन अवंचक ये हैं - (1) योगावंचक, (2) क्रियाऽवंचक और (3) फलावंचक । जिसके दर्शन से कल्याण एवं पुण्य की प्राप्ति होती है, ऐसे सद्गुरुओं का सुयोग योगावंचक है। उनका वंदन - सत्कार - सेवा आदि क्रियाऽवंचक है। इन समस्त शुभ क्रियाओं का फल जो अमोघ होता है, उसकी प्राप्ति फलावंचक है।2 इन तीनों अवंचकों में सर्वप्रथम प्रवृत्त योगी योगावंचक प्राप्त करता है और फिर उसे शेष दोनों अवंचक भी प्राप्त हो जाते हैं। प्रवृत्तचक्रयोगी अपनी आत्मा की उन्नति के लिए यम-नियमों का पालन करता है तथा राग-द्वेष पर विजय प्राप्ति के सोपानों को एक के बाद एक पार करता जाता है। (4) निष्पन्नयोगी- जिसका योग निष्पन्न हो चुका होता है अर्थात् पूर्ण हो गया होता है, वह निष्पन्नयोगी कहलाता है। ऐसा योगी सिद्धि के अति निकट होता है, इसलिये उसे धर्म-व्यापार की भी कोई जरूरत नहीं रहती । उसकी प्रवृत्ति सहज रूप में धर्ममय ही रहती है। जैन योग और कुण्डलिनी 1 जहाँ तक कुण्डलिनी (The Primal Power or Serpent Power) का संबंध है, इसका उल्लेख प्राचीन जैन शास्त्रों में नहीं मिलता। आगमों में तो इसकी चर्चा है ही नहीं, आचार्य हरिभद्र सूरि के योग ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख नहीं है, जब कि हठयोग और तंत्रयोग का यह मुख्य विषय रहा है। आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र और शुभचन्द्राचार्य के ज्ञानार्णव में कुछ ऐसी यौगिक क्रियाओं और साधनाओं का वर्णन अवश्य प्राप्त होता है जिनका सम्बन्ध कुण्डलिनी से है। 1. 2. 3. अवंचक का अभिप्राय सरलता ( वंचकतारहितता) है। जो कभी वंचना - प्रवंचना न करे, उलटा तिरछा न जाये, कभी न चूके, बाण की तरह सीधा अपने लक्ष्य पर पहुँचे, उसे अवंचक कहा गया है। योगदृष्टिसमुच्चय 34. आद्यावंचकयोगाप्त्या तदन्यद्वयलाभिनः । saकारिणो योगप्रयोगस्येति तद्विदः ।। 78 अध्यात्म योग साधना - योगदृष्टिसमुच्चय 213
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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