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________________ (2) गोत्रयोगी'-आर्यक्षेत्र के अन्तर्गत भारत भूमि में जन्म लेने वाले मनुष्य भूमि भव्य कहे जाते हैं, इन्हें गोत्रयोगी भी कहा जाता है। इसका कारण यह है कि भारत भूमि में योग साधना के अनुकूल साधन, निमित्त आदि सहज. ही उपलब्ध होते रहे हैं। किन्तु केवल भूमि की भव्यता और साधनों की सुलभता से ही योग साधना नहीं सधती, वह तो साधक की अपनी भव्यता, योग्यता और सुपात्रता से ही सिद्ध होती है। गोत्रयोगी में ऐसी सुपात्रता नहीं होती। साधन सहज ही प्राप्त होने पर भी वह यम-नियम का पालन नहीं करता, उसकी प्रवृत्ति संसाराभिमुखी होती है। अतः ऐसे मनुष्य को योग को अधिकारी नहीं माना गया है। (3) प्रवृतचक्रयोगी-जिस प्रकार चक्र के किसी भाग पर डंडा सटा कर घुमा देने से वह पूरा का पूरा घूमने लगता है, उसी प्रकार जिन मनुष्यों के किसी भी अंग से योग चक्र का स्पर्श होते ही, वे योग में प्रवृत्त हो जाते हैं, उन्हें प्रवृत्तचक्रयोगी कहा जाता है। वे यम के चार भेदों में से इच्छायम और प्रवृत्तियम को साध चुके होते हैं तथा स्थिरयम और सिद्धियम को साधने में प्रयत्नशील रहते हैं। - प्रवृत्तचक्रयोगी आठ गुणों से युक्त होता है। आठ गुण ये हैं (1) शुश्रूषा-सत् तत्त्व सुनने की तीव्र उत्कंठा। (2) श्रवण-अर्थ का मनन-अनुसंधान करते हुए सावधानीपूर्वक तत्त्व सुनना। (3) अधिग्रहण-सुने हुए को ग्रहण करना-अधिगृहीत करना। (4) धारणा-ग्रहण किये हुए का संस्कार चित्त में जमाना। (5) विज्ञान-अवधारण करने के उपरान्त उसका विशिष्ट ज्ञान (विज्ञान) करना; प्राप्त बोध का दृढ़ संस्कार जमाना। (6) ईहा-चिन्तन, विमर्श, तर्क-वितर्क, शंका-समाधान करना। (7) अपोह-तर्क-वितर्क, शंका-समाधान तथा चिन्तन मनन के उपरान्त बाधक अंश का निराकरण करना। 1. योगदृष्टि समुच्चय 210 2 योगदृष्टिसमुच्चय 212 3. यमाश्चतुर्विधा इच्छाप्रवृत्तिस्थैर्यसिद्धयः। -योगभेद द्वात्रिंशिका 25 * जैन योग का स्वरूप *77*
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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