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________________ वह महान् योगी धर्मसंन्यास - शुद्ध दृष्टि से तात्त्विक आचरणमूलक, नैश्चयिक शुद्ध व्यवहारमय विशिष्ट योग - योगसंन्यास द्वारा अपने को कृत-कृत्य कर लेता है। इसके उपरान्त वह योगी अयोग अवस्था प्राप्त करके मुक्त हो जाता है, मोक्ष स्थान में जा विराजता है। इन आठ योगदृष्टियों के विवेचन से स्पष्ट है कि पातंजल योग वर्णित समस्त अष्टांगयोग (योग के आठों अंग) इन योगदृष्टियों में समाहित हो जाते हैं। जैन योग की दृष्टि से आचार्य हरिभद्र द्वारा निरूपित ये योगदृष्टियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। इनमें जैन मोक्षमार्ग - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का सार निहित है। विस्तृत अध्ययन के जिज्ञासु उनके ग्रन्थों का परिशीलन करें। योगियों के भेद आचार्य हरिभद्र ने चार प्रकार के योगी बताये हैं- (1) कुलयोगी, (2) गोत्रयोगी, ( 3 ) प्रवृत्तचक्रयोगी और ( 4 ) निष्पन्नयोगी । ' (1) कुलयोगी - जो योगियों के कुल में जन्मे हैं, जो प्रकृति से योगधर्मा हैं - योगमार्ग का अनुसरण करने वाले हैं, वे कुलयोगी कहलाते हैं। वे कुलयोगी किसी से भी द्वेष नहीं रखते, देव-गुरु- धर्म उन्हें स्वभाव से ही प्रिय होते हैं तथा ये दयालु, विनम्र, प्रबुद्ध और जितेन्द्रिय होते हैं। 1. योगदृष्टिसमुच्चय 208 2. 3. योगदृष्टिसमुच्चय 217, 211 वस्तुतः कुलयोगी शब्द विशिष्ट अर्थ लिये हुए है। साधारणतया ऐसा देखने में नहीं आता कि योगी का पुत्र भी योगी हो अथवा किसी की कुल परम्परा ही योगियों की रही हो । अतः कुलयोगी शब्द का साधनानिष्ठ, योगपरायण पुरुषों की परम्परा से सम्बद्ध माना जाना चाहिए। ऐसे साधक जन्म, वंशानुगति, वंश परम्परा से भिन्न-भिन्न भी हो सकते हैं। कुलयोगी शब्द से गुरु-शिष्य परम्परा का आशय भी लिया जा सकता है कि योगी गुरु का शिष्य भी योगी होता है। लोक में गुरु को पिता कहा जा सकता है। यद्यपि गुरु शिष्य का जनक (जन्म देने वाला पिता) नहीं होता किन्तु शिष्य के जीवन का निर्माण करने वाला, उसे सुसंस्कारी बनाने वाला गुरु ही होता है । इस अपेक्षा से भी कुलयोगी शब्द का आशय समझा जा सकता है। * 76 अध्यात्म योग साधना
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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