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होता है, वह एक-सा अवस्थित नहीं रहता, न्यूनाधिक भी होता रहता है। सातिचार स्थिरादृष्टि की स्थिति मलसहित रत्नप्रभा के समान होती है। जिस प्रकार मल के कारण रत्न की प्रभा कम-अधिक होती रहती है किन्तु मिटती नहीं; उसी प्रकार स्थिरादृष्टि में भी छोटे-मोटे दोष लगते रहते हैं; किन्तु इसकी दर्शन सम्बन्धी स्थिरता का नाश नहीं होता।
कर्मग्रंथ की भाषा में यह क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन है, जिसमें चल-मल-अगाढ़ दोष तो लगते रहते हैं; किन्तु सम्यक्त्व छूटता नहीं।
सम्यग्दर्शन का प्रारम्भ इसी पाँचवीं दृष्टि से होता है। जीव भेदविज्ञानी होकर आत्मा के स्वभाव और पर-भावों को, शरीर, धन-सम्पत्ति, पुत्र-पुत्री आदि को स्वयं से भिन्न मानने लगता है।
(6) कान्तादृष्टि'-कान्तादृष्टि में साधक को अविच्छिन्न सम्यक दर्शन रहता है। जिस प्रकार कान्ता (पतिव्रता स्त्री) घर के अन्य सभी काम करते हुए, उसका हृदय सदैव अपने पति में लगा रहता है, उसी प्रकार कान्तादृष्टि वाला योगी संसार के अन्य सभी कार्य करता है किन्तु उसका हृदय सदैव अपनी आत्मा में लगा रहता है, वह आत्मानुभव करता रहता है।
इस सतत आत्मानुभव का परिणाम यह होता है कि उस योगी की आत्मभावना अत्यन्त दृढ़ हो जाती है, वह सहजरूप से सतत आत्मभाव में रमा रहता है। वह सांसारिक भोग-उपभोगों को अनासक्त भाव से भोगता है, इसलिये उसके भोग आगे बन्धन तथा भवभ्रमण के हेतु नहीं होते, उनसे प्रगाढ़ कर्मबन्धन नहीं होता। उसके राग-द्वेष अत्यल्प होते हैं, हृदय हिम के समान शीतल हो जाता है, वृत्तियाँ बहुत कुछ उपशान्त हो जाती हैं।
उपशम भाव से उसके व्यक्तित्व में ऐसी. विशिष्टता उत्पन्न हो जाती है कि उसके सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, सदाचार का प्रभाव अन्य लोगों पर भी पड़ता है, उसके व्यक्तित्व की उत्कृष्टता अन्य लोगों के लिए भी प्रीतिकर होती है, वे लोग उसके प्रति द्वेष-भाव न रखकर प्रेम रखते हैं।
कान्तादृष्टियुक्त योगी के अष्टांग योग का छठा अंग 'धारणा सधता है। धारणानिष्ठ हो जाने पर वह आत्मतत्त्व के अतिरिक्त अन्य विषयों में रस नहीं लेता।
1. योगदृष्टिसमुच्चय 162-169 2. देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।
-पातंजल योगसूत्र 3/1
-74* अध्यात्म योग साधना *