SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रशांत रस का सहज प्रवाह बहता रहता है कि साधक का चित्त उसी में निमग्न हो जाता है, वह योग से हटता नहीं, अन्यत्र जाता नहीं। दीप्रादृष्टि में स्थित साधक केवल कानों से सुनता ही नहीं, वरन् हृदयंगम भी करता रहता है। उसके अन्दर अन्तर्ग्राहकता का भाव उदित हो जाता है; किन्तु सूक्ष्म बोध अधिगत करना अभी शेष रह जाता है। वह साधक धर्म को अपने प्राणों से भी अधिक मानता है। वह सदाचार के प्रति निष्ठा ही नहीं रखता, वरन् उसको आचरण में भी लाता है। उसके चित्त की शांति बढ़ने लगती है। दीप्रादृष्टि में स्थित साधक को संसार के भोग खारे पानी के समान अप्रिय लगते हैं और तत्त्वश्रवण अमृत के समान। (5) स्थिरादृष्टि'-स्थिरादृष्टि में दर्शन (सम्यग्दर्शन) नहीं गिरने वाला अर्थात् अप्रतिपाती हो जाता है। इसमें प्रत्याहार सधता है अर्थात् स्व-स्व विषयों के सम्बन्ध से विरत होकर इन्द्रियाँ चित्तस्वरूपाकार हो जाती हैं तथा साधक जो भी क्रिया-कलाप करता है, वह भ्रान्तिरहित, निर्दोष एवं सूक्ष्म बोधयुक्त होते हैं। • इस दृष्टि में स्थित साधक की मिथ्यात्व ग्रंथि का भेदन हो जाता है, उसको सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है। परिणामस्वरूप उसे संसार के सभी सुख-भोग क्षणभंगुर मालूम होते हैं और वह आत्मा को ही उपादेय, अजर-अमर मानता है। स्थिरादृष्टि रत्नप्रभा के तुल्य (सदा एक समान ज्योति) देदीप्यमान रहती है। स्थिरादृष्टि दो प्रकार की होती है-(1) सातिचार और (2) निरतिचार। निरतिचार दृष्टि में अतिचार, दोष और विघ्न नहीं होते। उसमें होने वाला दर्शन (सम्यग्दर्शन) नित्य एक-सा अवस्थित रहता है। जिस प्रकार निर्मल रत्नप्रभा सदा एक समान ही दीप्तिमयी रहती है, वैसी ही स्थिति इस निरतिचार स्थिरादृष्टि की होती है। कर्मग्रंथ की भाषा में इसे क्षायिक सम्यग्दर्शन कहा जाता है। सातिचार स्थिरादृष्टि में होने वाला दर्शन (सम्यग्दर्शन) अतिचार सहित 1. योगदृष्टि समुच्चय 154-161 2. स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः। -पातंजल योगसूत्र 2/54 * जैन योग का स्वरूप * 73 *
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy