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योग-संग्रह को ही प्रकारान्तर से आचार्य हरिभद्र ने योगबिन्दु में पूर्वसेवा, योग दृष्टिसमुच्चय में योग बीज और योगशतक में लौकिक धर्म पालन कहा है तथा स्पष्ट शब्दों में इनका पालन साधक के लिए आवश्यक बताया है। गुरु का महत्व ___ साधक के लिए आवश्यक है कि वह पूर्वसेवा आदि प्रारम्भिक क्रियाओं के साथ-साथ गुरु का सत्संग भी करे।
योगमार्ग में गुरु का महत्व सर्वाधिक है। क्योंकि सद्गुरु के अभाव में विषय तथा कषायों में वृद्धि होती है। गुरु द्वारा ही साधक को तत्त्वज्ञान की प्राप्ति तथा शास्त्रों का मर्म हृदयंगम होता है। इससे उसका आत्मविकास होता है।
अतः संयम के पालन तथा उसमें उत्तरोत्तर उन्नति के लिए तथा तत्त्व : ज्ञान की प्राप्ति हेतु गुरु की समीपता अति आवश्यक है। उन्हीं के उपदेश और प्रेरणा से योग साधना में सफलता प्राप्त होती है। गुरु सेवा आदि कृत्यों से लोकोत्तर तत्त्व की प्राप्ति होती है। यहाँ तक कि गुरु भक्ति मोक्ष का अमोघ साधन है।
अतः गुरु का महत्व एवं स्थान जैन योग में अति उच्च माना गया है। योगाधिकारी के भेद
आचार्य हरिभद्र ने योगबिन्द में योग के अधिकारी साधकों की दो कोटियाँ बताई हैं-(1) अचरमावर्ती और (2) चरमावर्ती। ___ इनमें से अचरमावर्ती साधक पर तो मोह का गहन परदा छाया रहता है। उसकी प्रवृत्ति संसाराभिमुखी रहती है। वह धर्म-क्रियाएँ भी लौकिक-सुख एवं यश की कामना से करता है। इसीलिए वह लोकपंक्तिकृतादर कहा
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योगबिन्दु 109-117 योगदृष्टिसमुच्चय 22-23, 27-28 योगशतक 25-26 तावद् गुरुवचः शास्त्रं तावत् तावच्च भावनाः। कषायविषयैर्यावद् न मनस्तरली भवेत्।। एवं गुरुसेवादि च काले सद्योगविघ्नवर्जनया। इत्यादिकृत्यकरणं लोकोत्तर तत्त्वसम्प्राप्तिः।। गुरुभक्ति प्रभावेन तीर्थकृद्दशनं मतम्। समापत्त्यादिभेदेन निर्वाणैकनिबन्धनम्।।
-योगसार 119
-षोडशक 5/16
-योगदृष्टिसमुच्चय 64
*64 * अध्यात्म योग साधना