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(15) विनय - आत्म- परिणामों में विनम्रता रखना। ( 16 ) धृतिमति-धैर्यपूर्ण मति ।
( 17 ) संवेग - मोक्ष विषयक तीव्र अभिलाषा । (18) प्रणिधि - माया अथवा कपट रहितता । ( 19 ) सुविधि - सदनुष्ठान ।
(20) संवर - कर्मों के आगमन को रोकना ।
(21) आत्मदोषोपसंहार - अपने दोषों का निरोध करना ।
(22) सर्वकामविरति - सभी प्रकार की इच्छाओं से विरति रखना ।
( 23 ) मूलगुणसम्बन्धी प्रत्याख्यान ।
(24) उत्तरगुणसम्बन्धी प्रत्याख्यान ।
(25) व्युत्सर्ग-त्याग ।
(26) अप्रमाद - प्रमाद न करना । ( प्रमाद 15 प्रकार का है, उन सब • प्रकार के प्रमादों का त्याग करना । )
(27) लवालव-क्षण-प्रतिक्षण अपने स्वीकृत आचार का पालन करना । (28) ध्यान - संवर योग तथा धर्म और शुक्ल ध्यान अर्थात् शुभ ध्यान करना । (29) मारणांतिक उदय - मारणांतिक परीषह आने पर भी दुःख एवं क्षोभ नहीं करना ।
(30) संग - त्याग - मन में असंग भाव रखना।
( 31 ) प्रायश्चित्त करना।
(32) मारणांतिक आराधना - जीवन के अन्तिम समय की साधना - काय और कषाय को कम करते हुए समभाव से निर्भय होकर मृत्यु
का वरण करना ।
ये योग-संग्रह के बत्तीस सूत्र जैन योग की आधार- भूमि माने गये हैं। इनके पालन और सुदृढ़तापूर्वक सफल बनाने का उपदेश श्रमण और श्रावक दोनों को दिया गया है। इन आधार - भूमिकाओं के स्थिर हो जाने के उपरान्त श्रावक भी श्रमण के समान साधना कर सकता है।
* जैन योग का स्वरूप 63