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________________ इसी प्रकार भागवत' में भी मन की चार अवस्थाएँ मानी गई हैं। प्रश्नोपनिषद् में भी इन अवस्थाओं का वर्णन किया गया है। योग संग्रह चारित्र-विकास के लिए तथा योग साधना हेतु साधकों के लिए कुछ आवश्यक नियम-उपनियम तथा क्रियाओं को करने का विधान है, इन्हें जैन पारिभाषिक शब्दावली में योग संग्रह कहा गया है। इनका उल्लेख समवायांग' सूत्र में मिलता है। ये योग संग्रह बत्तीस हैं। (1) आलोचना - गुरु के समक्ष अपने दोषों को स्वीकार करना । (2) निरपलाप-शिष्य के दोष दूसरों के सामने प्रगट नहीं करना । (3) व्रतों में स्थिरता - अंगीकृत व्रत - नियमों का आपत्तिकाल में भी परित्याग नहीं करना । (4) अनिरपेक्ष तपोपधान - अन्य किसी की सहायता की अपेक्षा न करके तप करना । (5) शिक्षा - शास्त्रों का पठन-पाठन करना । (6) निष्प्रतिकर्मता - शरीर की सजावट तथा श्रृंगार न करना । (7) अज्ञातता - अपने द्वारा किए गये तप को गुप्त रखना । (8) अलोभता - लोभ न रखना। (9) तितिक्षा - परीषहों को समभावपूर्वक सहना । (10) ऋजुभाव - भावों में सरलता रखना। ( 11 ) शुचि - सत्य तथा संयम में वृद्धि करते रहना । (12) सम्यग्दृष्टि - सम्यग्दृष्टि होना । (13) समाधि - चित्त की एकाग्रता तथा समताभाव । (14) आचार-आचार पर दृढ़ रहना। 1. श्रीमद्भागवत 11/13/27 2. प्रश्नोपनिषद् 5/6 3. समवायांग सूत्र, 32वाँ समवाय 62 अध्यात्म योग साधना
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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