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________________ मन के बारे में अध्यात्म कल्पद्रुम में कहा गया है-मन की समाधि योग का हेतु तथा तप का निदान है, और मन को केन्द्रित करने के लिए तप आवश्यक है, अतः तप शिवशर्म का-मोक्ष का मूल कारण है।' मन के प्रकार जैन आचार्य हेमचन्द्र ने मन के चार प्रकार बताये हैं-(1) विक्षिप्त मन (2) यातायात मन (3) श्लिष्ट मन और (4) सुलीन मन। इसी प्रकार पातंजल योग के भाष्यकार ने भी चित्त की पाँच भूमिकाएँ स्वीकार की हैं-(1) क्षिप्त, (2) मूढ़, (3) विक्षिप्त, (4) एकाग्र और (5) निरुद्ध। ये भूमिकाएँ चित्त की अवस्थाएँ ही हैं। _ विक्षिप्त मन तो चंचल होता ही है किन्तु यातायात मन विक्षिप्त मन की अपेक्षा कम चंचल होता है। क्योंकि चंचलता योग में विघ्न रूप होती है, इसलिए योगी को इन दोनों प्रकार के मन पर नियन्त्रण स्थापित करना चाहिये। श्लिष्ट नाम का तीसरा मन स्थिरतायुक्त और आनन्दमय होता है तथा जब यह मन स्थिर हो जाता है तो चौथा सुलीन मन होता है।' इसी प्रकार का वर्णन चित्त की भूमिकाओं का किया गया है। क्षिप्त मन रजोगुण प्रधान और चंचल होता है। मूढ़ चित्त तमोगुणप्रधान और आलसी तथा विवेकशून्य होता है। विक्षिप्त मन कभी-कभी स्थिर भी हो जाता है। ये तीनों अवस्थाएँ योग-समाधि के लिए अनुपयोगी हैं। एकाग्रचित्त में स्थिर होने का गुण विकसित हो जाता है और निरुद्ध मन में सभी बाह्य वृत्तियों का अभाव हो जाता है। इसलिए अन्तिम दो अवस्थाएँ योग साधना के लिए अनुकूल हैं। 1. योगस्य हेतुर्मनसः समाधिः परं निदानं तपसश्च योगः। तपश्च मूलं शिवशर्म आहुः मनः समाधिं भज तत्कचित्।। -अध्यात्म कल्पद्रुम 9/15 2. इह विक्षिप्तं यातायातं श्लिष्टं तथा सुलीनं च। चेतश्चतुःप्रकारं तज्ज्ञ-चमत्कारि भवेत्।। -योगाशास्त्र 12/2 3. क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तं एकाग्रं निरुद्धं चित्तस्य भूमयः चित्तस्य अवस्था विशेषाः। । - भोजवृत्ति 1/2 तथा योगभाष्य 4. योगशास्त्र (हेमचन्द्र) 12/3 5. वही 12/4 6. तत्व वैशा. टीका-वाचस्पति मिश्र 1/1 7. भोजवृत्ति 1/2 * जैन योग का स्वरूप 61 *
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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