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वैदिक विद्वानों ने भी योग के संयोग और समाधि दोनों अर्थों का समन्वय करते हुए जो सारगर्भित व्याख्या की है, उससे भी इसी तथ्य का समर्थन होता है।
मोक्ष के साधन के रूप में जैन धर्म-दर्शन ने रत्नत्रय को ही सर्वोत्तम उपाय (योग) स्वीकार किया है। यह रत्न सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्ररूप है। यह योग (उपाय) अथवा साधन शास्त्रों का उपनिषद् है, मोक्ष को देने वाला है, तथा समस्त विघ्न-बाधाओं का उपशमन करने वाला है, अतः कल्याणकारी है। यह (योग) इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति कराने वाला कल्पवृक्ष एवं चिन्तामणि है। धर्मों में प्रधान यह योग सिद्धि-जीवन की चरम सफलता-मुक्ति का अनन्य हेतु है।
इस प्रकार जैन आचार्यों ने योग के लक्षण में साध्य अर्थात् समाधि और उस समाधि को प्राप्त कराने वाले साधन-दोनों का समन्वयं किया है। मन की अचंचलता आवश्यक
योगसिद्धि के लिये यह आवश्यक है कि मन स्थिर रहे, एकाग्र हो, चंचल न रहे, उसकी चंचलता मिट जाये। अतः सर्वप्रथम मन को नियन्त्रण में करना आवश्यक है। मन के कारण ही इन्द्रियाँ चंचल होती हैं। इस प्रकार मन और इन्द्रियों की चंचलता एकोन्मुखता के मार्ग में भटकाव उत्पन्न करती हैं और आत्मा के अपने स्वरूप की उपलब्धि में बाधक बनती है इसलिये चंचल मन को स्थिर करना योग की पहली शर्त है।
1. समाधिमेव च महर्षयो योगं व्यपदिशन्ति-यदाहुः योगियाज्ञवल्क्या:-'समाधिः समतावस्था,
जीवात्म-परमात्मनो :। संयोगो योग इत्युक्तः, जीवात्म-परमात्मनोः' इति। अतएव स्कन्धादिषु–'यत्समत्वंद्वयोरत्र,जीवात्मपरमात्मनोः,समष्टसर्व-संकल्प:समाधिरभिधीयते।' 'परमात्मात्मानोर्योऽयमविभागः परन्तप! स एव तु परो योगःसमासात् कथितस्तव।' इत्यादिषु वाक्येषुयोगसमाध्यो:समानलक्षणत्वेन निर्देश:संगच्छते।-स्वामि बालकरामकृत-योगभाष्य
भूमिका
2.
-तत्वार्थ सूत्र 1/1
-योगप्रदीप 113
(क) सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। (ख) ज्ञानदर्शनचारित्ररूपरत्नत्रयात्मकः।
योगोमुक्तिपदप्राप्तानुपायः परिकीर्तितः।। शास्त्रस्योपनिपद्योगो योगो मोक्षस्य वर्तनीः।। अपायशमनो योगो, योगकल्याणकारकम्।। योगः कल्पतरुः श्रेष्ठो योगश्चिन्तामणिः परः। योगः प्रधानं धर्माणां योगः सिद्धेः स्वयंग्रहः।।
-योगमाहात्म्य द्वात्रिंशिका, 1
-योगबिन्दु 37
* 60 * अध्यात्म योग साधना *