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________________ गया है। ऐसा व्यक्ति क्षुद्रवृत्ति वाला, भयभीत, ईर्ष्यालु और कपटी होता है। ऐसे लोग चाहे यम-नियम आदि का पालन भी करें; किन्तु अंतःशुद्धि के अभाव में वे योगी नहीं हो सकते। जो लोग लौकिक हेतु अथवा आकर्षण के भाव से योग साधना एवं धार्मिक अनुष्ठान करते हैं, वे अध्यात्मयोगी कभी नहीं हो सकते। दसरी कोटि के साधक चरमावर्ती हैं। वस्तुतः योग-साधना अथवा योगदृष्टि का प्रारम्भ यहीं से होता है। चरमावर्ती जीव स्वभाव से मृदु, शुद्ध तथा निर्मल होते हैं। चरम का अर्थ है-अन्तिम और आवर्त का अर्थ है-पुद्गलावर्त। पुद्गलावर्त एक जैन पारिभाषिक शब्द है जो समय की गणना के काम आता है; अर्थात् पुद्गलावर्त समय का एक विशेष परिमाण है। ___ चरमावर्ती जीवों पर मोह का गाढ़ा पर्दा नहीं होता। मिथ्यात्व की मलिनता भी अत्यल्प रहती है। वे शुक्लपाक्षिक होते हैं, उनका ग्रन्थिभेद भी हो चुका होता है। उनका बिन्दु मात्र संसार अवशिष्ट रहता है। चरमावर्ती जीव सम्पूर्ण आन्तरिक भावों से परिशुद्ध होकर जिन धार्मिक क्रियाओं को करता है, उन साधनों को जैन दृष्टि से योग माना गया है। . आत्म-विकास के क्रम में जीव की स्थितियाँ चरमावर्ती जीव आत्मोन्नति के मार्ग पर बढ़ते हुए जिन स्थितियों से गुजरता है, वे चार हैं-(1) अपुनर्बन्धक, (2) सम्यग्दृष्टि, (3) देशविरति और (4) सर्वविरति।' 1. देखिए-योगबिन्दु 73, 86-87-88, 93 तथा योगसार प्राभृत 8/18-21 2. आत्मस्वरूप विचार 173-74 3. नवनीताविकल्पस्तच्चरमावर्त इष्यते। अत्रैव विमलौ भावौ गोपेन्द्रोऽपि यदभ्यद्यात्।। -योगलक्षण द्वात्रिंशिका, 18 योगबिन्दु 72, 99 5. चरमावर्तिनो जन्तोः सिद्धरासन्नता ध्रुवम्। भूयांसोऽमी व्यतिक्रान्तास्तेष्वेको बिन्दुरम्बुधौ।। -मुक्त्यद्वेषप्राधान्य द्वात्रिंशिका 28 6. योगलक्षणद्वात्रिंशिका, 22 7. योगशतक 13-16; योगबिन्दु 102, 177-78, 253, 351-52 *जैन योग का स्वरूप * 65*
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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