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किन्तु प्राचीनतम जैन आगमों सूत्रकृतांग', उत्तराध्ययन, समवायांग, ठाणांग' आदि अंग-आगम ग्रन्थों में भी ऐसे ही उल्लेख पाये जाते हैं।
साथ ही जैनाचार्यों ने योग का निरुक्तिपरक अर्थ 'युजिर् योगे' भी स्वीकार करते हुए कहा है कि जो आत्मा को केवलज्ञान आदि परम सात्त्विक तथा ज्ञान चेतना के साथ जोडता है, वह योग है। आचार्य हरिभद्र ने कहा है कि योग आत्मा को मोक्ष से जोड़ता है, अर्थात् मोक्ष तक पहुँचाता है और योगी के सभी धर्म व्यापार योग के अन्तर्गत हैं। इसी लक्षण को और विस्तृत करते हुए उपाध्याय यशोविजयजी ने कहा हैसमितिगुप्तिधारणं धर्मव्यापारत्वमेव योजनम्।
_ -योगदर्शनवृत्ति तथा इसीलिये वे समिति-गुप्तिरूप योग को उत्तम मानते हैंयतः समितिगुप्तिनां प्रपंचौ योग उत्तमः।
-योगभेद द्वात्रिंशिका, 30 क्योंकि समिति-गुप्ति से संयम की वृद्धि और चेतना की शुद्धि होती है और योग भी आत्मा को उसकी शुद्ध दशा को प्राप्त कराने वाला मार्ग है। अतः समिति-गुप्तिरूप योग से आत्मा को सिद्धावस्था प्राप्त होती है।
वस्तुस्थिति यह है कि जहाँ योग समाधि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, वहाँ वह साध्यरूप से निर्दिष्ट है; और जहाँ योजन, संयोजन अथवा संयोग अर्थ में योग का प्रयोग किया गया है, वहाँ वह साधन रूप निर्दिष्ट किया गया है। यह तथ्य सर्वविदित है कि बिना साधन के साध्य की प्राप्ति नहीं होती।
1. सूत्रकृतांग 1/2/1/11.
उत्तराध्ययन 11/14; 27/2 तथा देखिए उत्तरा. 11/14 की बृहद् वृत्ति-योग : समाधिः,
सोऽस्यास्ति इति योगवान्। 3. स्थानांग, 10. 4. युज्यते वाऽनेन केवलज्ञानादिना आत्मेति योगः।
-हरिभद्रसूरिकृत-ध्यान शतक की वृत्ति 5. मोक्खेण जोयणाओ जोगो सव्वो वि धम्मवावारो। -योगविंशिका 1
तदेतद् ध्यानमेव चाभ्यस्यमानं कालक्रमेण परिपाकदंशापन्नं समाधिरित्यभिधीयते'ध्यानादस्पन्दनं बुद्धेः समाधिरभिधीयते' इति स्कन्धाचार्योक्तिः।
-पातंजल योगदर्शन की टिप्पणी-स्वामी बालकराम
* 58 * अध्यात्म योग साधना .