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________________ है। पंचसंग्रह' में कहा गया है-समाधि, तप, ध्यान आदि शब्दों का उपयोग 'योग' के समान अर्थ में हुआ है और वीर्य, स्थान, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति एवं सामर्थ्य शब्द प्रकारान्तर से योग के पर्यायवाची अथवा योग के अर्थ को व्यंजित करने वाले हैं। भगवती आराधना' में योग को वीर्य गुण की पर्याय माना गया है। वहाँ उसका आशय यही है कि वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होने वाला आत्म-परिणामविशेष योग है। अर्थात् संसारी दशा में आत्मा के उत्साह आदि योग हैं। आत्म-प्रदेशों की चंचलता तथा उनके संकोच - विस्तार को भी योग कहा है। जैन पारिभाषिक शब्द 'संवर" योग के समकक्ष आता है, क्योंकि योग में भी चित्तवृत्तियों का निरोध होता है और 'संवर' आत्मा में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय आदि आस्रवों का निरोध है अर्थात् इन आस्रव रूप आत्म- परिणतियों के रोकने को संवर कहा है। योग का समाधि और ध्यान के अर्थ में प्रयोग तो जैन-ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर हुआ है। नियमसार, सर्वार्थसिद्धि', राजवार्तिक' आदि दिगम्बर ग्रन्थों में तो समाधि और ध्यान के अर्थ में योग का व्यवहार हुआ ही है; 1. जोगो विरियं यामो उच्छाह परक्कमो तहा चेट्ठा । सति सामत्थं चिय जोगस्स हवन्ति पज्जाया ।। 2. योगस्य वीर्य परिणामस्य....। 3. 4. 5. - पंचसंग्रह, भाग 2,4 - भगवती आराधना, 1178 / 1187,4 (क) विशेषावश्यक भाष्य 358 (ख) जीव पदेसाणं परिफन्दो संकोच विकोचब्भमणसरूवओ। झाणसंवर जोगे य। - अभिधान राजेन्द्र कोश, विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता जोह कहिय तच्चेसु । जो जुंजदि अप्पाणं णियभावो सो हवे जोगी ।। - धवला 10/42,4, 175/437/7 भाग 4, पृ. 1650 - नियमसार, गाथा 139 (विपरीत अभिनिवेश का त्याग करके जो जिनकथित तत्त्वों में आत्मा को लगाता है, उसका वह निजभाव, योग है। ) 6. सर्वार्थसिद्धि 6/12/331/3 तथा गोम्मटसार कर्मकाण्ड 801 / 980/13 7. निरवद्यस्य क्रियाविशेषस्यानुष्ठानं योगः समाधिः सम्यक्प्रणिधानमित्यर्थः । - तत्त्वार्थ राजवार्तिक 6/12/8/522/31 * जैन योग का स्वरूप 57
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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