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(4) पंचांग सेवन-मन्त्रयोग का यह चौथा अंग है। प्रत्येक मन्त्र के पाँच अंग होते हैं। (1) बीज-इसमें सम्पूर्ण मन्त्र का सार निहित होता है किन्तु यह सस्वर उच्चारणीय नहीं होता। (2) मन्त्र-मन्त्र के अक्षर-यह सस्वर उच्चारणीय होता है। (3) ऋद्धि-यह मन्त्र का हार्द होता है। (4) यन्त्र-अंक-अक्षर समन्वित ज्यामितीय रेखामय आलेखन। (5) कवच-इन चारों अंगों को समन्वित करते हुए स्तोत्र, स्तव आदि। इन पाँचों अंगों का मन्त्रयोगी साधक को विधिवत् सेवन करना चाहिये।
(5) आचार-मन्त्रयोगी साधक को अपना सम्पूर्ण आचार और साथ ही विचार भी शुद्ध और सात्विक रखने चाहिये।
(6) धारणा (Concentration)-यह दो प्रकार की होती है-(1) बहिर्धारणा और (2) आन्तर् धारणा।
बाहरी पदार्थों जैसे-मृत्तिका पिण्ड, चित्र आदि में धारणा करना, बहिर्धारणा कहलाता है।
अन्तर्जगत् अथवा मनोमय जगत् में धारणा करने को आन्तर् धारणा कहते हैं। पार्थिवी, आग्नेयी, वारुणी, वायवी आदि धारणाएँ आन्तर् धारणा के ही अन्तर्गत मानी जाती हैं।
(7) दिव्य देश सेवन-धारणा की सिद्धि होने पर साधक का चित्त एकाग्रता की ओर उन्मुख होने लगता है, चित्तवृत्तियाँ शुद्ध होने लगती हैं।
(8) प्राणक्रिया-इस अंग में मन्त्रयोगी प्राण (कुम्भक, पूरक, रेचक) के सहारे मन्त्र जाप करता है।
(9) मुद्रा-यह ध्येय है। इसमें साधक अपने इष्टदेव अथवा गुरुदेव का कल्पना में चित्र बनाकर इनका ध्यान करता है।
(10) तर्पण-इस अंग में मन्त्रयोगी साधक कल्पना चित्र रूप इष्टदेव अथवा गुरु को श्रद्धाभक्तिपूर्वक कल्पना में ही वन्दन करता है।
(11) हवन-इसमें मन्त्रयोगी साधक अपनी दुष्प्रवृत्तियों-काम, क्रोध, ईर्ष्या-द्वेष आदि की आहुति देता है।
(12) बलि-मन्त्रयोगी साधक अपने विकारों का विसर्जन करके उनकी बलि देता है।
(13) याग-याग का अभिप्राय मानसिक अर्चा-पूजा है।
(14) जप-यह तीन प्रकार का है-(1), वाचिक, (2) उपांश और (3) मानसिक। ये तीनों प्रकार के जप उत्तरोत्तर अधिक प्रभावशाली हैं। जप *46 * अध्यात्म योग साधना.