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________________ मनुष्य को अतीव शक्ति प्राप्त होती है। जन-साधारण में तो यह धारणा व्याप्त ही है कि मन्त्रों में गुह्य शक्ति होती है और इस शक्ति से असम्भव को भी सम्भव बनाया जा सकता है। यद्यपि यह सत्य है कि मन्त्रों में बहुत शक्ति होती है किन्तु उस शक्ति को प्राप्त करने के लिए मन्त्रों की विधि तथा उनके अंगों का ज्ञान अति आवश्यक है। मन्त्रयोग के 16 अंग हैं। (1) भक्ति-यह मन्त्रयोग का प्रथम अंग है। इसमें मन्त्र के प्रति साधक की पूर्ण भक्ति होनी चाहिये। भक्ति के दो भेद हैं-(1) वैधी और (2) रागात्मिका। वैधी भक्ति वह होती है जिसकी विधिपूर्वक साधना की जाती है। इसके नौ भेद हैं, जिसे नवधा भक्ति' कहा जाता है। रागात्मिका भक्ति रस का अनुभव कराने वाली तथा आनन्द और शान्ति देने वाली होती है। ऐसी भक्ति करने वाला साधक लोक-लाज आदि से निरपेक्ष हो जाता है। मीरा की भक्ति ऐसी थी। (2) शुद्धि-मन्त्रयोग का दूसरा अंग शुद्धि है। शुद्धि दो प्रकार की होती है-(i) बाह्य शुद्धि और (2) आन्तरिक शुद्धि। बाह्य शद्धि में साधक शरीर. स्थान और दिशा-इन तीन वस्तुओं की शुद्धि करता है। शरीर की शुद्धि स्नान से, भूमि की शुद्धि भूमि को झाड़-पौंछकर साफ करने से और दिशा की शुद्धि दिन में पूर्व या उत्तर दिशा में मुख करके बैठने तथा रात्रि को उत्तर-मुख बैठकर पूजा-अर्चना करने से होती है। आन्तरिक शुद्धि का अभिप्राय मन की शुद्धि से है। मन में से क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारों को निकालकर उसे शुद्ध किया जाता है तथा उसमें भगवद् भक्ति आदि शुभ भाव ग्रहण किये जाते हैं। (3) आसन-यह मन्त्रयोग का तीसरा अंग है। पदमासन, सिद्धासन, पर्यंकासन किसी भी आसन से साधक बैठे; किन्तु आवश्यक यह है कि आसन स्थिर और ऐसा होना चाहिये जिससे अधिक देर तक निराकुलतापूर्वक बैठा जा सके। 1. नवधा भक्ति के नौ भेदों का वर्णन भक्तियोग में किया जा चुका है। -सम्पादक * योग के विविध रूप और साधना पद्धति * 45*
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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