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नाथपंथीय परम्परा में मुख्यतः 9 नाथ' माने जाते हैं, वैसे 84 नाथ भी माने जाते हैं। इस पंथ के अन्य कई नाम भी प्रचलित हैं, जैसे सिद्धमत, योग सम्प्रदाय, योग-मार्ग, अवधूत मत, अवधूत सम्प्रदाय आदि-आदि।'
यद्यपि नाथयोग की यौगिक प्रक्रियाएँ हठयोग से मिलती-जुलती हैं; किन्तु इनके अन्तिम साध्य में बहुत अन्तर है। नाथयोग का अन्तिम साध्य शाश्वत आत्मा की अनुभूति प्राप्त करना है। अतः यह आत्मा का अमरत्व, नादमधु का आनन्द, शिवभक्ति के साथ समरसता उत्पन्न करता है।
नाथयोग सम्प्रदाय में गुरु का महत्त्व अत्यधिक है। गुरु की कृपा से ही साधक संसार-बन्धन को तोड़कर शिव की प्राप्ति कर सकता है ।" नाथ - सिद्धान्तयोग द्वैताद्वैत विलक्षणी माना जाता है। इसका कारण यह है कि शिव न द्वैत हैं और न ही अद्वैत; वे तो अवाच्य और निरुपाधि हैं । वे द्वैत-अद्वैत, साकारर- निराकार से परे हैं।
इस सम्प्रदाय में भी कुण्डलिनी शक्ति को विशेष महत्त्व दिया गया है। यह शक्ति सर्पाकार वृत्ति में सोई हुई रहती है तथा आत्म-संयम द्वारा जाग्रत होती है। जागने के बाद यह षट्चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार चक्र में जाकर शिव के साथ एक रूप हो जाती है। यह मिलन जीवात्मा का परमात्मा के साथ मिलन एवं एकरूप तथा लीन होने का प्रतीक है।' इस नाथयोग सम्प्रदाय का ध्येय ही शिव और शक्ति का मिलन है । "
भक्तियोग
भक्तियोग का अभिप्राय ईश्वर के प्रति अनन्य श्रद्धा और विश्वास है। इसमें भक्त अथवा, साधक अपने इष्टदेव के प्रति पूर्णतया समर्पित होता है।
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गोस्वामी, प्रथम खण्ड, वर्ष 24, अं. 12, 196, पृ. 92
कबीर की विचारधारा, पृ. 153
ज्ञानेश्वरी (मराठी), प्रस्तावना, पृ. 43
(क) एवं विधगुरोः शब्दात् सर्वचिन्ता विवर्जितः ।
स्थित्वा मनोहरे देशे योगमेव समभ्यसेत् ।।
- अमनस्कयोग 15
(ख) Siddha Siddhant Paddhati and other Works of Nath Yogis, pp. 54-80
अमनस्कयोग 25.
सन्तमत का सरभंग सम्प्रदाय, पृ. 49.
शिवस्याभ्यन्तरे शक्तिः शक्तेरभ्यन्तरः शिवः। अन्तरं नैव जानीयाच्चंद्रचन्द्रिकयोरिव ।।
* 34 अध्यात्म योग साधना
-सिद्ध सिद्धान्त पद्धति 4/26.