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हठयोग प्रदीपिका के अनुसार-इसका (हठयोग का) उद्देश्य आन्तरिक शरीर की शुद्धि करके राजयोग की ओर गमन करना है। वहाँ यह भी कहा गया है कि हठयोग के बिना राजयोग और राजयोग के बिना हठयोग सम्भव नहीं है।
हठयोग की मान्यता है कि नाड़ी शुद्धि होने के उपरान्त कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है तथा यह षट् चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार चक्र में पहुँचती है। इस दशा में साधक का चित्त निरालम्ब और मृत्यु के भय से रहित हो जाता है। यह योगाभ्यास का मूल है। इसी दशा को कैलाश भी कहा जाता है।
वास्तविक स्थिति यह है कि नाड़ी शुद्धि के पश्चात् जब मन स्थिर होने लगता है, निरोधावस्था में पहुँच जाता है, तब राजयोग की सीमा प्रारम्भ होती
.. हठयोग में आचार-विचार की शद्धि पर भी अधिक बल दिया गया है। वहाँ अनेक यम-नियमों के पालन का विधान है।'
हठयोग का साधक यम-नियमों का पालन करता हुआ अपने शरीर की आन्तरिक शुद्धि, नाड़ी शुद्धि, प्राणायाम आदि के द्वारा करता है और फिर अपनी शक्ति को अन्तर्मुखी बनाकर सूक्ष्म शरीर को वश में करता है, तब - चित्त निरोध करता है और तदुपरान्त ईश्वर का साक्षात्कार करता है। यह सम्पूर्ण पद्धति और प्रक्रिया ही हठयोग है।
नाथयोग नाथयोग का प्रारम्भ गोरखनाथ (10वीं शताब्दी) ने किया है। इस सम्प्रदाय की ऐसी मान्यता है कि शिव ने मत्स्येन्द्रनाथ को योग की दीक्षा दी थी और मत्स्येन्द्रनाथ ने गोरखनाथ को।
1. हठयोग प्रदीपिका 275. 2. भारतीय संस्कृति और साधना, भाग 2, पृष्ठ 397. 3. शिवसंहिता 5. 4. हठयोग प्रदीपिका 17-18. 5. (क) Siddha Siddhant Paddhati and other Works of Nath Yogis, pp.7
and 10 (a) Gorakhnath and Kanfata Yogis, pp. 235-36.
* योग के विविध रूप और साधना पद्धति * 33*