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वाक्य दिया गया है। इस वाक्य का अभिप्रेत गीता को योग ग्रन्थ प्रमाणित करना ही है। योग विषयक अनेक विचार गीता में संग्रहीत और समन्वित हैं।
गीता में 18 अध्याय हैं, प्रत्येक अध्याय के विषय को एक स्वतन्त्र 'योग' की संज्ञा की गई है। अतः 18 प्रकार के योग उसमें बताये गये हैं। उनके नाम हैं-(1) समत्वयोग, (2) ज्ञानयोग, (3) कर्मयोग, (4) दैवयोग, (5) आत्मसंयमयोग, (6) यज्ञयोग, (7) ब्रह्मयोग, (8) संन्यासयोग, (9) ध्यानयोग, (10) दुःख संयोग-वियोगयोग, (11) अभ्यासयोग, (12) ऐश्वरीययोग, (13) नित्ययोग, (14) शरणागतियोग, (15) सातत्ययोग, (16) बुद्धियोग, (17) आत्मयोग और (18) शक्तियोग।
- इन सभी योगों के लक्षण व वर्णन भी इनके नाम के अनुसार वहाँ दिये गये हैं।
अन्य विविध ग्रन्थों में योग के विभिन्न भेद एवं प्रकार इस तरह प्राप्त होते हैं:
समाधियोग ___यह योग महर्षि पतंजलि के अष्टांगयोग के अन्तिम अंग 'समाधि' पर
आधारित है। समाधियोग के अन्तर्गत सबीज और निर्बीज-दो प्रकार की समाधि मानी गई है, इसे 'सविकल्प' और 'निर्विकल्प समाधि' भी कहा गया है। तेजोबिन्दु उपनिषद् में जीवात्मा का परमात्मा में लीन हो जाना समाधि कहा गया है। ___इसी को पातंजल योगसूत्र में असंप्रज्ञात योग, निर्बीज समाधि, कैवल्य, चिति शक्ति, स्वरूप प्रतिष्ठा' आदि नामों से कहा गया है।
शरणागतियोग यह गीताकार द्वारा प्रतिपादित है। इसका अभिप्राय यह है कि जो व्यक्ति अनन्यभाव से भगवान की शरण ग्रहण कर लेता है, उसे वे (भगवान) सभी पापों से मुक्त कर देते हैं
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः। (-गीता)
वास्तव में यह भक्तियोग का ही एक प्रकार है। इसमें भक्त अपने आपको अपने सभी कार्यों को अपने भगवान के प्रति अर्पित कर देता है।
1. पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति।
-पातंजल योगसूत्र 4/34 - * योग के विविध रूप और साधना पद्धति * 31*