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विवेकचूडामणिः ।
घटविषयक ज्ञानभी नहीं है और घटका ज्ञाता वह मनुष्यभी नहीं हो सकता तैसे आत्मासे अतिरिक्त जब कोई पदार्थ हैही नहीं तो आत्मा किस वस्तुका ज्ञाता होगा और कौन वस्तुका ज्ञान आत्मामें रहेगा इसी कारण आत्मा ज्ञातृ ज्ञेय ज्ञान शून्य है ।। २४१ ॥ अहेयमनुपादेयं मनोवाचामगोचरम् । अप्रमेयमनाद्यन्तं ब्रह्म पूर्णमहं महः || २४२ ॥
त्याज्य ग्राह्यसे रहित मन और वचनका अविषय अप्रमेय आदि अन्तहीन परिपूर्ण तेजःपुंज ब्रह्म मैं हूँ ऐसा अपनेको ज्ञानी पुरुषको समझना चाहिये ।। २४२ ॥
तत्त्वंपदाभ्यामनधीयमानयोर्ब्रह्मात्मनोः शोधितयोर्यदीत्थम् । श्रुत्यातयोस्तत्त्वमसीति सम्यगेकत्वमेव प्रतिपाद्यते मुदुः ॥ २४३ ॥
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तत्त्वमसि यह वेदका महावाक्यभी जीवात्मा परमात्मा के अभेदहीको प्रतिपादन करता है जैसे सर्वज्ञत्व विशिष्ट चैतन्य तत्पदका अर्थ है तथा अल्पज्ञत्व विशिष्ट चैतन्य त्वंपदका अर्थ है इन दोनों अथक शोधन करने से अर्थात् अच्छी रीतिसे विचारा जाय तो तत्त्वमसि, यह श्रुति वार २ दोनोंका एकत्वहीको कहती है । जैसे कोई बोला कि वही यह बालक हैं इस वाक्य में परोक्षकाल, संयुक्त बालक वह पदका अर्थ है और वर्तमान काल संयुक्त बालक यह पदका अर्थ है इन दोनों अर्थों में जो विरुद्ध अंश है परोक्षकाल संयुक्त और वर्त्तमानकाल संयुक्त इन दोनों अंशोंको त्यागकरने से बालकही दोनोंमें अवशेष रहता है और इन दोनोंके अभेद करनेसे एकही बालकका बोध होता है तैसे तत्त्वमसि इस महावाक्य में सर्वज्ञत्व विशिष्ट आत्मा तत् पदका अर्थ हैं अल्पज्ञत्व विशिष्ट आत्मा जो संपदका अर्थ है इन दोनों अर्थों में जो विरुद्ध अंश सर्वज्ञत्व विशिष्ट अल्पज्ञत्व विशिष्ट है इन दोनों विरुद्ध अंशको त्यागकर देनेसे जीवात्मा