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भाषाटीकासमेतः। (५३) स्वस्य द्रष्टुनिर्गुणस्याक्रियस्य प्रत्ययबोधानन्दरूपस्य बुद्धेः । भ्रान्त्या प्राप्तो जीवभावो न सत्यो मोहापाये नास्त्यवस्तुस्वभावात् ॥ १९९ ॥ स्वयं द्रष्टा गुणक्रियासे रहित बोधानन्दस्वरूप परमात्मामें भ्रान्तिसे जीवभाव प्राप्त होता है वास्तविक वह सत्य नहीं है मोहके नाश होनेपर स्वभावहीसे अनित्य वस्तु जीवभाव आदिका नाश होजाता है१९९ यावद्धान्तिस्तावदेवास्य सत्ता मिथ्या ज्ञानो ज्जृम्भितस्य प्रमादात् । रज्ज्वां सो भ्रांतिकालीन एव भ्रान्ते शे नैव सोऽपि तद्वत् ॥ २० ॥ जैसे रज्जुमें सर्पका भान होता है सो बुद्धिक प्रमादसे है जबतक भ्रांतिकी स्थिति है तबतकही सर्पकी सत्ता है भ्रांतिके नाश होनेपर सर्पबुद्धिका भी नाश होजाता है तैसे जबतक भ्रांति है तबतकहीं मिथ्या ज्ञानकाल्पित जीवसत्ता रहती है भ्रम नाश होनेपर जीवभाव नष्ट होकर केवल आत्मसत्ताकाही भान होता है ।॥ २०॥
अनादित्वमविषायाः कार्य्यस्यापि तथेष्यते । उत्पन्नायां तु विद्यायामाविद्यकामनायपि। प्रबोधेस्वप्नवत्सर्व सहमूलं विनश्यति ॥ २०१॥ माया और मायाका कार्य ये दोनों अनादि हैं जब ज्ञान उत्पन्न होता है तो अनादि भी मायाका कार्य माया सहित नष्ट होजाता है जैसे स्वप्नावस्थाका सब कार्य निद्रा खुलनेपर नष्ट होजाताहै २०१ अनाद्यपीदं नो नित्यं प्रागभाव इव स्फुटम् । अनादेरपि विध्वंसः प्रागभावस्य वीक्षितः ॥२०२।। यद्यपि मायाकार्य सब अनादि हैं तथापि नित्य नहीं हैं क्योंकि प्रागभाव अनादि है परन्तु जिस वस्तुका अभाव रहता है उस वस्तुका