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विवेकचूडामणिः ।
शिष्य उवाच ।
भ्रमेणाप्यन्यथा वास्तु जीवभावः परात्मनः । तदुपाधेरनादित्वान्नानादेर्नाश इष्यते ॥ १९५ ॥
इतना उपदेश गुरुमुखसे सुनकर फिर शिष्य गुरुसे प्रश्न करता है कि, जो परमात्मा जीवभावको प्राप्त हुआ है सो भ्रमसे हो चाहे सत्य हो परन्तु जीवकी उपाधि अनादि है और जो अनादि है उसका नाश भी नहीं होता है ॥ १९५ ॥
(५२)
अतोऽस्य जीवभावोपि नित्या भवति संसृतिः । न निवर्तते तन्मोक्षः कथं मे श्रीगुरो वद ॥ १९६ ॥ उपाधिके अनादि होनेसे आत्माका जीवभाव और संसार ये दोनों नित्य हुए नित्य होने से ये दोनों निवृत्त न होंगे जब कि, निवृत्त न हुये तो मोक्ष कैसे होगा ॥ १९६ ॥
श्रीगुरुरुवाच ।
सम्यक्पृष्टं त्वया वत्स सावधानेन तच्छृणु । प्रामाणिकी न भवति भ्रांत्या मोहितकल्पना ॥ १९७॥
शिष्यका समीचीन प्रश्न सुनकर गुरुजी बोले हे वत्स ! तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया तुम्हारे प्रश्नका उत्तर मैं कहता हूं सावधान होकर सुनो भ्रांतिसे मोहयुक्त जो परमात्मामें जीवभावकी कल्पना होती है सो कल्पना प्रामाणिकी नहीं है ॥ १९७ ॥
भ्रांतिं विना त्वसंगस्य निष्क्रियस्य निराकृतेः । न घटेतार्थसम्बन्धो नभसो नीलतादिवत् ॥ १९८ ॥ जैसे आकाश में श्यामता भ्रांति कल्पित है वास्तविकमें आकाशका .कोई रूप नहीं है तैसे आकृतिसे रहित असङ्ग आत्माके विषय संबकी घटना भी करना अयोग्य है ॥ १९८ ॥