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(५०) विवेकचूडामणिः।
अनुवजच्चित्प्रतिबिम्बशक्तिर्विज्ञानसंज्ञः प्रकृतेविकारः।ज्ञानक्रियावानहमित्यजत्रं देहेन्द्रियादिष्वभिमन्यते भृशम् ॥ १८८॥
चैतन्यकी प्रतिबिम्बशक्तिसे युक्त होकर वही जो प्रकृतिका विकार विज्ञानमयकोश है सोही देहमें और इन्द्रियों में मैं ज्ञानी हूं मैं क्रियावान हूं ऐसे अभिमानको उत्पन्न करता है ॥ १८८ ॥
अनादिकालोऽयमहं स्वभावो जीवः समस्तव्यवहारवोढा । करोति कर्माण्यपि पूर्ववासनः पुण्यान्यपुण्यानि च तत्फलानि ॥ १८९ ॥
अहंकार स्वभाव संयुक्त अनादि कालका जो यह जीव है सो समस्त व्यवहारको प्राप्त करता है और पूर्व वासनासंयुक्त होकर पुण्य, पाप आदि सब कर्मको करता है और उसके फलको स्वयं भोगता है१८९ भुङ्क्ते विचित्रास्वपि योनिषु व्रजन्नायाति निर्याः . त्यध उर्ध्वमेषः । अस्यैव विज्ञानमयस्य जाग्रत्स्वप्नायवस्था सुखदुःखभोगः ॥ १९० ॥ यह जीव नानातरहकी योनिमें घूमता हुआ परलोकको जाता है और इसलोकको भी आता है इस विज्ञानमय कोशकी जाग्रत् स्वमादि अवस्था है सो सुख दुःखको अनुभव करताहै ॥ १९० ॥ देहादिनिष्ठाश्रमधर्मकर्मगुणाभिमानं सततं ममेति । विज्ञानकोशोऽयमतिप्रकाशः प्रकृष्टसान्निध्यवशात्परात्मनः । अतो भवत्येव उपाधिरस्य यदा त्मधीः संसरति भ्रमेण ॥ १९१ ॥ यह विज्ञानमय कोश परमात्माके अत्यन्त सन्निहित रहनेसे सब वस्तु