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विवेकचूडामणिः ।
सर्वोऽपि बाह्यसंसारः पुरुषस्य यदाश्रयः । विद्धि देहमिमं स्थूलं गृहवगृहमेधिनः ॥ ९२ ॥ संपूर्ण यह दृश्यमान बाह्य संसार गृहस्थोंका गृहके तुल्य पुरुषका स्थूल देह है ॥ ९२ ॥
स्थूलस्य संभवजरामरणानि धर्मा स्थौल्यादयो बहुविधाः शिशुताद्यवस्थाः । वर्णाश्रमादिनियमा बहुधामयाः स्युः पूजावमानबहुमानमुखा विशेष : ९३
जन्म होना, बढना, स्थूल होना, दुबर्ल होना ये सब स्थूल शरीरके धर्म हैं, बाल युवा वृद्ध मरण आदि अनेक प्रकारकी अवस्था होती हैं वर्णाश्रम आदि नियम और प्रतिष्ठा अनादर आदि अनेक प्रकारकी इसमें आधि व्याधि होती हैं ॥ ९३ ॥
बुद्धीन्द्रियाणि श्रवणं त्वगक्षि घ्राणं च जिह्वा - विषयावबोधनात् । वाक्पाणिपादा गुदमप्युपस्थः कम्र्मेन्द्रियाणि प्रवणेन कर्मसु ॥ ९४ ॥
श्रोत्र, त्वगु, अक्षि, जिह्वा, घ्राण इन पांच इन्द्रियोंसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध इन पांचों विषयोंका ज्ञान होता है इसलिये इनको ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं । वाक, पाणि, पाद, पायु, उपस्थ इन पांचोंका वचन, आहरण, गमन, विसर्ग, आनन्द आदि कर्ममें प्रवृत्त होनेसे इनको कर्मोंन्द्रिय कहते हैं ॥ ९४ ॥
निगद्यतेऽन्तःकरणं मनोधीरहंकृतिश्चित्तमिति स्ववृत्तिभिः । मनस्तु संकल्पविकल्पनादिभिर्बुद्धिः पदार्थाध्यवसायधर्मतः ॥ ९५ ॥ अत्राभिमानादहमित्यहंकृतिः स्वार्थानुसंधानगुणेनचित्तम् ॥ ९६ ॥