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विवेकचूडामणिः ।
दिगम्बरो वापि च साम्बरो वा त्वगम्बरो वापि चिदम्बरस्थः । उन्मत्तवद्वापि च बालवद्वा पिशाचवद्वापि चरत्यवन्याम् ॥ ५४१ ॥ चैतन्यरूप ही वस्त्रधारण करि ब्रह्मज्ञानी माहात्मा कभी नंगे होजाते हैं कभी वस्त्र पहनकर कभी चर्माम्बरको धारण कर उन्मत्तके समान कभी बालक समान कभी पिशाचसमान होकर भूमण्डल में विचरते हैं ॥ ५४१ ॥ कामान्निष्कामरूपी संश्वरत्येकचरो मुनिः । स्वात्मनैव सदा तुष्टः स्वयं सर्वात्मना स्थितः ॥ ५४२ ॥
ज्ञानीपुरुष आत्मस्वरूमें सदा संतुष्ट होकर और सर्वात्मस्वरूप होकर निःकामरूपसे सब कामको करते भी हैं पर अपने सदा ब्रह्मही मन रहते हैं ॥ ५४२ ॥
क्वचिन्मूढो विद्वान् कचिदपि महाराजविभवः कचिद्धान्तः सौम्यः क्वचिदजगराचारकलितः । क्वचित्पात्रीभूतः क्वचिदवमतः क्वाप्यविदितश्वरत्येवं प्राज्ञः सततपरमानन्दसुखितः ॥ ५४३ ॥ ब्रह्मवित् महात्मा कहीं मूढ समान दिखाई देते हैं कभी विद्वान् हो बैठते हैं कहीं महाराजों का विभव भोगते हैं कहीं भ्रान्त रूपसे दिखाई देते हैं कहीं तो सौम्य रूप होजाते हैं कहीं अजगरोंके आचरण युक्त होते हैं कहीं महात्मा बनकर पूजितहोते हैं कहीं अनादर भी पाते हैं कहीं छिपे रहते हैं कहीं प्रकट रहते हैं इस प्रकारसे ज्ञानी महात्मा सदा परमानन्द सुखसे सुखी होकर विचरते हैं ।। ५४३ ॥ निर्धनोऽपि सदा तुष्टोप्यसहायो महाबलः । नित्यतृप्तोप्यभुञ्जानोऽप्यसमः समदर्शनः ॥ ५४४ ॥