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(११८) विवेकचूडामणिः । गुणदोषविशिष्टेऽस्मिन् स्वभावेन विलक्षणे । सर्वत्र समदर्शित्वं जीवन्मुक्तस्य लक्षणम् ॥१३॥ गुण और दोषसे संयुक्त और स्वभावसे विलक्षण जो यह संसार है इसमें समदृष्टि रखना यह जीवन्मुक्तका लक्षण है ॥ ४३४ ॥
इष्टानिष्टार्थसम्प्राप्तौ समदर्शितयात्मनि । उभयत्राविकारित्वं जीवन्मुक्तस्य लक्षणम् ॥४३५॥ जिस पुरुषका इष्ट वस्तुके प्राप्त होनेसे चित्तमें न हर्ष हुआ न तो भनिष्ट वस्तुके प्राप्त होनेसे खेदहुआ किन्तु दोनों अवस्थाओंमें समदृष्टि होनेसे जिसको आत्मामें कोई तरहका विकार उत्पन्न न हुआ. वह जीवन्मुक्त है ॥ ४३५ ॥
ब्रह्मानन्दरसास्वादासक्तचित्ततया यतेः । अन्तर्बहिरविज्ञानं जीवन्मुक्तस्य लक्षणम् ॥४३६॥ ब्रह्मानन्द रसका आस्वादनमें आसक्तचित्त होनेसे बाह्य और अन्तरीयवस्तुका ज्ञान न होना केवल एक ब्रह्मानन्दरसहीका आस्वादनमें लीन रहना यह जीवन्मुक्त पुरुषका लक्षण है ॥ ४३६ ॥ देहेन्द्रियादौ कर्त्तव्ये ममाहंभाववर्जितः ।
औदासीन्येन यस्तिष्ठेत्स जीवन्मुक्तलक्षणः ४३७॥ देहमें तथा इन्द्रियोंमें तथा कर्त्तव्य जितनी वस्तु है इन सबमें ममता और अहंकारसे रहित होकर उदासीनतासे जो सदा स्थिर रहता है वह पुरुष जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ ४३७ ॥ विज्ञात आत्मनो यस्य ब्रह्मभावः श्रुतेर्बलात् । भवबन्धविनिर्मुक्तः स जीवन्मुक्तलक्षणः ॥४३८॥
श्रुतियोंके देखनेसे और विचारनेसे जीवात्मामें ब्रह्मभाव जिसका विज्ञात हुआ ( अर्थात् जीव ब्रह्मकी एकता हुई ) वही पुरुष भवबन्धसे विनिर्मुक्त होकर जीवन्मुक्त कहाजाता है ॥ ४३८॥