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विवेकचूडामणिः ।
अखण्डानन्दमात्मानं विज्ञाय स्वस्वरूपतः । किमिच्छन् कस्य वा हेतोः देहं पुष्णाति तत्ववित् ॥ ४१८ ॥
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अखण्ड आनन्दस्वरूप आत्मा अपनेको जानकर ब्रह्मज्ञानी पुरुष किस वस्तु की इच्छासे और किस कारण इस देहको पालन करते हैं४१८ संसिद्धस्य फलं त्वेतज्जीवन्मुक्तस्य योगिनः । बहिरन्तः सदानन्दरसास्वादनमात्मनि ॥ ४१९ ॥ समीचीन सिद्ध जीवन्मुक्त योगी होनेका यही फल है जो बाह्यमें और अंतर में सच्चिदानन्द रसको अपने में आस्वादन किया करे४१९ ॥ वैराग्यस्य फलं बोधो बोधस्योपरतिः फलम् । स्वानन्दानुभवाच्छां तिरेषैवोपरतेः फलम् ॥४२० ॥ वैराग्य होने का फल यही है जो बोध होना और बोध होनेका फल यह है जो उपरति होना अर्थात् विषयसे विमुख इन्द्रियोंको विषयसे वैराग्य होना अथवा विहित कर्मको संन्यास विधिसे त्याग करना आत्मानन्दरसको अनुभवसे शान्तिको प्राप्त होना यही उपरतिका फल है ॥ ४२० ॥
यद्युत्तरोत्तराभावः पूर्वपूर्वं तु निष्फलम् । निवृत्तिः परमा तृप्तिरानन्दोऽनुपमः स्वतः ॥ ४२१ ॥ यदि वैराग्यका मुख्य फल बोधही नहीं हुआ तो वैराग्य होना निष्फल है और बोधका फल उपरति न हुई तो बोधभी होना निष्फल है । विषयसे निवृत्ति होनेपर परमतृप्ति होती है तृप्ति होने पर आपही से अनुपम आनन्द होता है ॥ ४२१ ॥ दृष्टदुःखेष्वनुद्वेगो विद्यायाः प्रस्तुतं फलम् । यत्कृतं भ्रांतिवेलायां नानाकर्म जुगुप्सितम् । पश्चान्नरो विवेकेन तत्कथं कर्त्तुमर्हति ॥ ४२२ ॥