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( ११०) विवेकचूडामणिः। एकात्मके परे तत्त्वे भेदवार्ता कथं वसेत् । सुषुप्तौ सुखमात्रायां भेदः केनावलोकितः ॥ ४०४॥
एकात्मक जो अद्वितीय परब्रह्म है उसमें भेदकी वार्ता कैसे वास करसकती है जैसे केवल सुखमात्रकी साधक जो सुषुप्ति अवस्था है उसमें भेद किसने देखा अर्थात् सुषुप्तिमें सुखके अनुभवसे अलग दूसरा कोई वस्तुका भान नहीं होता तैसे ब्रह्मज्ञान होने पर ब्रह्मसे अलग कुछभी नहीं भासता ॥ ४०४ ॥
न ह्यस्ति विश्वं परतत्त्वबोधात्सदात्मनि ब्रह्मणि निर्विकल्पे । कालत्रयेनाप्यहिरीक्षितो गुणे नयम्बुबिन्दुगतृष्णकायाम् ॥ ४०५॥ ब्रह्मज्ञान होनेके बाद निर्विकल्प जो सच्चिदानन्द परमात्मा है उसमें विश्वका भान नहीं होता है विवेक करनेसे रज्जुमें सर्प किसी कालमें किसीने नहीं देखा मृगतृष्णकामें नदीजलका एक बिन्दुभी किसीने नहीं पाया परन्तु भ्रमसे रज्जुमें सर्पकाभी भान होता है और मृगतृष्णिकासे जल बुद्धिभी होती है तैसे आत्मामें जब तक अज्ञान है तब तक संसारसम्भावना होतीहै अज्ञान दूर होने पर आत्मासे भिन्न कुछभी नहीं दीखता ॥ ४०५ ॥ मायामात्रमिदं द्वैतमद्वैतं परमार्थतः । इति ब्रूते श्रुतिः साक्षात्सुषुप्तावनुभूयते ॥ ४०६॥
ईश्वरमें जो द्वैत बुद्धि है सो माया कल्पितहै केवल जो अद्वैत बुद्धिहै वही यथार्थ है सुषुप्तिमें अद्वैतहीका भान होता है और बहुतसी श्रुतियां भी अद्वैतहीको स्पष्ट कहती हैं ॥ ४०६ ॥
अनन्यत्वमधिष्ठानादारोप्यस्य निरीक्षितम् । पण्डितै रज्जुसादौ विकल्पो भ्रान्तिजीवनः ४.७