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________________ विवेकचूडामणिः । तेनाविद्यातिमिरजनितान्साधुदग्धाविकल्पान्त्रलाकृत्या निवसति सुखं निष्क्रियो निर्विकल्पः ३५६ जो यतिपुरुष बाह्य इन्द्रियोंको विषयसे निवृत्त कर परम उपरा मको प्राप्त होकर क्षमायुक्त चित्तवृत्तिको निरोध करता हुआ अपनेको सर्वात्मस्वरूप मानता है वही पुरुष आत्मज्ञानसे अविद्यारूप अन्धका रसे उत्पन्न विकल्प वस्तुको नाश करि भेदबुद्धि और क्रियासे रहित साक्षात् ब्रह्मस्वरूप से सुखपूर्वक निवास करता है ॥ ३५६ ॥ (९६) समाहिताये प्रविलाप्य बाह्यं श्रोत्रादिचेतः स्वमहं चिदात्मनि । त एव मुक्ता भवपाशबन्धैर्नान्ये तु पारोक्ष्यकथाभिधायिनः ॥ ३५७ ॥ जो मनुष्य चित्तवृत्तिको निरोध करि बाह्य वस्तुओंकों और श्रोत्र आदि इन्द्रियों को चित्तको चैतन्य आत्मामें लयकर देते हैं वही मनुष्य संसाररूप पाशसे मुक्त होते हैं दूसरे केवल परोक्ष ब्रह्मकी कथाके अभिधान करने से कभी मुक्त नहीं होते || ३५७ || उपाधिभेदात्स्वयमेव भिद्यते चोपाध्यपोहे स्वयमेव केवलः । तस्मादुपाधेर्विलयाय विद्वान् वसेत्सदा कल्पसमाधिनिष्ठया ॥ ३५८ ॥ उपाधिभेद होने से साक्षात् आत्मा भिन्न मालूम होता है यदि उपाधिका नाश कियाजाय तो केवल एक आत्माही दीखता है इसलिये विद्वान् उपाधिके लय करने के निमित्त प्रलयपर्यन्त समाधि लगाकर सदा वास करे || ३५८ ॥ सति सक्तो नरो याति सद्भावं ह्येकनिष्ठया । कीटको भ्रमरं ध्यायन्भ्रमरत्वाय कल्पते ॥ ३५९॥ · चित्तको इकट्ठा कर सच्चिदानन्द ब्रह्ममें आसक्त होनेसे अर्थात् चित्त लगाने से ब्रह्मरूपताको मनुष्य प्राप्त होता है। जैसे भ्रमर दीवालोंमें एक
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
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